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________________ स्थायी होता है, पर है दोनों मिथ्या । जैन दर्शन के अनुसार, भाव की सत्ता नहीं मानने वाले मत में इष्ट तत्व की सिद्धि नहीं होती है। न तो वहाँ बोध प्रमाण है न ही वाक्य । प्रमाण के अभाव में स्वमत की सिद्धि और परमत का खण्डन संभव नहीं है । ' मीमांसक सर्वथा भावाभावात्मक रूप वस्तु को मानते हैं, परंतु यह भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यदि भाव और अभाव दोनों एकरूप हैं, तो या तो भाव रहेगा या अभाव। सांख्य के मत में व्यक्त और अव्यक्त दोनों का तादात्म्य है। महत् आदि का प्रकृति में तिरोभाव हो जाता है फिर भी इनका सद्भाव बना रहता है। व्यक्त और अव्यक्त सर्वथा एकरूप हैं तो दोनों में एक ही शेष रहेगा । बौद्ध तत्व को सर्वथा अवाच्य बताते हैं, परंतु अवाच्य कहने वाला अवाच्य का प्रयोक्ता नहीं हो सकता । " "स्याद्वादविरोधी मतों में भाव और अभाव का निरपेक्ष अस्तित्व संभव नहीं है, क्योंकि दोनों को एकात्म मानने में विरोध है। यहाँ तो अवाच्यैकांत भी नहीं बनता, क्योंकि "यह अवाच्य है” ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं हो सकता। 'पदार्थों का सर्वथा सद्भाव ही है,' अगर ऐसा मानें तो समस्त पदार्थ अनादि अनंत और स्वरूप रहित हो जायेंगे।' अभाव चार प्रकार का है- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यंताभाव। वस्तु की उत्पत्ति के पूर्व को प्रागभाव कहते हैं। पदार्थ के नाश के बाद के अभाव को प्रध्वंसाभाव कहते हैं। एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से सापेक्ष अभाव को अन्योन्याभाव कहते हैं। एक पदार्थ के दूसरे पदार्थ में शाश्वत अभाव को अत्यंताभाव कहते हैं। सांख्य पदार्थों का सर्वथा सद्भाव मानते हैं, प्रागभाव नहीं। और प्रागभाव न मानने से महत् आदि अनादि हो जायेंगे, फिर प्रकृति से महदादि की 1. अभावैकांतपक्षेपि... साधनदूषणम् 1.12. 2. आप्तमी. तत्वदीपिका टीका 1.13.129.31. 3. विरोधानोभयै... युज्यते आ.मी. 1.13 4. भावैकान्ते पदार्थानां... मतापकम् आ.मी. 1.9 Jain Education International 2010_03 39 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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