SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही अस्तित्व है। उत्पाद, व्यय या पर्याय द्रव्य रूप स्थायी धर्म के धर्मी हैं। न तो धर्म धर्मी से विभक्त होता है और न धर्मी धर्म का परित्याग करते हैं। धर्म और धर्मी की भिन्नता प्रमाण ग्राह्य नहीं है। धर्मधर्म्यात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है । ' ן धर्म और धर्मी की सत्ता कथंचित् सापेक्ष एवं कथंचित् निरपेक्ष है। द्रव्य-गुण- पर्याय में एकांत भेद नहीं है: - न्यायवैशेषिक द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मानते हैं। अगर द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न माना जाये तो जैन दर्शन के मत में या तो द्रव्य की अनंतता होगी या अभाव। व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय तो अनेकों हैं, और वे सब द्रव्य और गुण की अभिन्नता में ही संभव है।" द्रव्य के नाश होने की आशंका इसलिए है कि गुण द्रव्याश्रित ही होते हैं। अगर गुण द्रव्य से भिन्न होगा तो गुण किसी और का आश्रित होगा, और वह भी यदि द्रव्य से भिन्न होगा तब तो द्रव्य में अनंतता आयेगी, क्योंकि गुण जिसका भी आश्रित होगा वह द्रव्य ही होगा । धर्म और धर्मी ( द्रव्य और गुण) को सर्वथा भिन्न मानने से विशेष्य विशेषण भाव भी संभव नहीं है । " गुणों को उसके आश्रयभूत द्रव्य से भिन्न मानने पर गुण निराश्रय हो जायेंगे एवं गुण से पृथक् रहने वाला द्रव्य भी निःस्वरूप होने से कल्पनामात्र बनकर रह जायेगा ।' वैशेषिक दिशा, काल और आकाश को क्रियावाले द्रव्यों से विलक्षण होने के कारण निष्क्रिय मानते हैं। कर्म और गुण को भी वे निष्क्रिय ही मानते हैं।' अगर इन्हें निष्क्रिय मानें तो “गुणसन्द्रावो द्रव्यम्"" यह लक्षण कैसे सिद्ध होगा? एकांतवादियों के मत में तो " द्रव्यं भव्ये" यह लक्षण भी सिद्ध नहीं होता। जब द्रव्य ही असिद्ध है तो उसमें भव्य ( होने वाले) की कल्पना कैसे की जा सकती है ? गुण, कर्म और सामान्य से जब द्रव्य सर्वथा भिन्न है तो खरविषाणगुण 1. षड्दर्शनसमुच्चयटीका 57.36.3 2. जदि हवदि मदव्वभण्णं... पकुव्वंति, ववदेसा संठाणा...विज्जंते पं.का. 44, 46. 3. द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे... द्रव्यानंत्यम् पं.का.टी 44. 4. स. म. 4.17.18 5. यदि गुणा एव द्रव्याभावि... निराधारत्वाद्... कल्पना द्रव्यस्य स्यात् रा.वा. 9.2.9.439 6. दिक्कालावकाशश: ...निष्क्रियाः वै.द. 5.2.21, 22. 7. पातंजल महाभाष्य 5.1.119. Jain Education International 2010_03 42 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy