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द्रव्य त्रैकालिक है:- अपने परिणामी स्वभाव के कारण द्रव्यों में प्रतिक्षण परिणमन होना अवश्यम्भावी है, वे किसी भी क्षण परिणमन शून्य नहीं रह सकते। परिणमन करने पर भी वे अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करते। वे तद्भाव परिणमन करते हैं!' अनादि काल के इस परिणमन प्रवाह में 'द्रव्य जितने थे, उतने ही हैं; न घटे हैं और न बढ़े हैं।
__जीव द्रव्य अथवा अन्य कोई भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता हैं और न नष्ट होता है, मात्र पर्याय परिणमन होता है। इससे यह स्पष्ट अवबोध होता है कि द्रव्य की सत्ता त्रैकालिक है।
द्रव्य में अतीत में अनंत पर्याय हो चुकी हैं। भविष्य में भी अनंत पर्यायें होगी, मात्र वर्तमान की अपेक्षा पर्याय एक है।' पर्यायवाला ही द्रव्य होता है। इस प्रकार से, सूत्रकार के स्पष्टीकरण से तीनों कालों में द्रव्य का अस्तित्व निर्विवाद है।
तीनों कालों को विषय करने वाले नयों और उपनयों के विषयभूत अनेक धर्मों के तादात्म्य संबंध को प्राप्त समुदाय का नाम द्रव्य है। वह द्रव्य एक (सामान्य की अपेक्षा) भी है और अनेक (विशेष की अपेक्षा) भी।'
पर्याय द्रव्य में ही होती है। अत: जब पर्यायों का त्रैकालिक अस्तित्व है, तो उसका आश्रयदाता द्रव्य तो स्वत: त्रैकालिक हो जाता है।
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी अन्ययोग व्य. में सत् का लक्षण प्रतिपादित करते हुए कहा है कि प्रत्येक क्षण में उत्पन्न और नाश होने वाले पदार्थों की स्थिति देखकर भी जो द्रव्य के उत्पाद और विनाश को नहीं मानते, इसमें उनकी कलुषित मानसिकता ही कारण हो सकती है।'
उत्पाद और विनाश दोनों का अधिकरण त्रैकालिक ध्रुव द्रव्य ही है, जैसे चैत्र और मैत्र दोनों भाइयों का अधिकरण एक माता है।' 1. तद्भावः परिणामः त. सू. 5.42 2. मणुसत्तणेण- प.का. 17.18.19 3. का. प्रे. 10.221 एप दवियम्मि - हवइ दव्वं ध. 1.1.136. 199 क. पा. 1.1.14.108 4. पर्ययवद् द्रव्यमिति- द्रव्यमुक्तम् लो. वा. 2.1.5.63.269. 5. नयोपनय- द्रव्यमेकमनेकधा आ.मी. 10.107. 6. प्रतिक्षणोत्पाद-पिशाचको वा. अन्ययो 21. 7. स्थिरमुत्सादविनाशयौ यथा चैत्रमैत्रयोरेका जननी स्यात् वही 21.197
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