SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुद्गल द्रव्य में ही सम्भव होने के कारण मूर्त द्रव्य में ही संभव हैं. अमूर्त में नहीं। घट-पट आदि जो भी मूर्त पदार्थ हैं, वे सभी प्रयलजन्य परिवर्तन है। बादल, पहाड आदि का सर्जन और विसर्जन क्रमशः वैस्रसिक सामुदायिक उत्पाद एवं विनाश हैं। बिना किसी अन्य द्रव्य से मिले अर्थात् एक स्वतंत्र द्रव्य में जो उत्पाद या विनाश होता है, वह एकत्विक अप्रयलजन्य उत्पाद एवं विनाश है। यह स्कंधाश्रित न होने के कारण परिशुद्ध भी कहलाता है। इसका विषय मात्र अमूर्तद्रव्य और एक-एक (स्वतंत्र) द्रव्यरूप है। यह परिणमन आकाश, धर्म और अधर्म में ही संभव है। यह प्रयत्नजन्य नहीं हो सकता, क्योंकि ये तीनों अस्तिकाय गति एवं क्रिया रहित हैं। अत: इसमें प्रयल का अभाव है। प्रयत्नजन्य और अप्रयत्नजन्य, इन दोनों ही सामुदायिक विनाशों के समुदायविभागमात्र एवं अर्थातंरभावप्राप्ति नाम के दो दो प्रकार हैं। सामुदायिक प्रयत्नजन्य विनाश का उदाहरण है प्रयल पूर्वक बनाये गये मकान से ईंट आदि अवयवों का अलग हो जाना। सामुदायिक अप्रयलजन्य विनाश का उदाहरण है प्रकृतित: बने हुए बादलों का स्वतः ही बिखर जाना। अवयवों से अलग हुए विना (उसी द्रव्य में) पूर्व आकार को छोड़ कर नए आकार को धारण करना प्रयलजन्य अर्थांतरभाव विनाश है, जैसे- कड़े से कुंडल बनना।' अप्रयत्नजन्य अर्थांतरभाव का उदाहरण है भौतिक संयोग से या ऋतु परिवर्तन से बरफ का पानी, और पानी का भाप बनना। उमास्वाति ने एक अन्य अपेक्षा से भी परिणमन की व्याख्या की हैकिसी भी द्रव्य का स्वाभाविक परिणमन 'पारिणामिक भाव' कहलाता है; एवं परमाणुओं के मिलने से जोपरिणमन होता है, वह औदयिक भाव कहलाता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल में जो परिणमन होता है वह पारिणामिक है। पुद्गल द्रव्य में पारिणामिक एवं औदयिक, दोनों परिणमन होते हैं। परमाणु में पारिणामिक परिणमन होता है। स्कंधों में रूप, रस आदि में होने वाला औदयिक परिणमन है। जीव में सभी परिणमन होते हैं।' 1. सामाविओ वि समुदयकओ- पच्चओणियमा सन्मतित. 3.33. 2. विगमस्स वि एस... भावगमणं च स. त. 3.34 एवं इसी पर संपादक युगल का विवेचना 3. भावो धर्माधर्माम्बर- भावानुगा जीवाः प्रशमरति 209. 29 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy