________________
तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म की व्याख्या इस प्रकार बनायी गयी है “वह जिससे समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई और उत्पन्न होने के पश्चात् जीवन को धारण करते हैं, मृत्यु के बाद वे सारे ब्रह्म में ही समा जाते हैं। एक मत यह भी है कि जिस प्रकार बढ़ई मकान आदि बनाता है, ब्रह्मा ने भी उसी प्रकार से सृष्टि बनायी है।
यहाँ प्रश्न यह होता है कि जब ब्रह्म ने संसार बनाया तो बनाने की सामग्री उसे कहाँ से उपलब्ध हुई? इसका उत्तर आगे जाकर यह दिया गया कि ब्रह्म ही वह वृक्ष एवं काष्ठ है जिससे द्युलोक एवं पृथ्वी का निर्माण हुआ।
इस प्रकार सृष्टि के संबंध में उपनिषदों में स्पष्ट विचारधारा मिलती हैं कि संपूर्ण चेतन-अचेतन ईश्वर- द्वारा सर्जित है एवं व्यय या विनाश होकर उसी में विलीन हो जाता है।
बौद्ध मत में द्रव्य एवं सृष्टि:-बौद्ध दर्शन के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध से जब इस प्रकार के जीव, जगत विषयक प्रश्न किये जाते थे, तब वे इन्हें अव्याकृत कहकर मौन ही रहते थे।
बुद्ध कहते थे ये प्रश्न न तो अर्थयुक्त हैं न ही धर्मयुक्त। इनका ज्ञान न तो ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक है और न निर्वेद के लिए; इनसे न विराग होता है; न दुःखनिरोध; न शान्ति न अभिज्ञा; न संबोधि प्राप्त होती है और न निर्वाण, अतः इन्हें अव्याकृत कहा है।'
तथागत आगे कहते हैं “कुछ श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवाद को मानते हैं, कुछ उच्छेदवाद को, कुछ अंशतः दोनों को मानते हैं। ये सब इन्हीं प्रश्नों में उलझकर रह जाते हैं। मैं भी इनको जानता हूँ, प्रत्युत ज्यादा जानता हूँ, परंतु जानने का अभिमान नहीं करता, अत: तथागत निर्वाण का साक्षात्कार करते हैं।"
बुद्ध ने आगे यह भी कहा कि जो लोक (संसार) आदि का विवेचन 1. तैत्तिरीयोपनिषद् 3.16 तैतिरीय ब्राह्मण 10.31.7 2. तैतिरीय ब्राह्मण.... 3. दीघनिकाय पोठ्ठपादसुत्त 9 4. दीघनिकाय पोठ्ठपादसुत्त 9 5. दीघनिकाय ब्रह्मजालसुत्त ।
14
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org