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________________ निमित्त से टेबल कुर्सी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी ब्राह्य व आभ्यंतर कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, जैसे पाषाण खोदने से पानी निकलता है। यहाँ अविभक्त कर्तृकरण है उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिये। ' पंचास्तिकाय के अनुसार:- उन-उन सद्राव पर्यायों को जो तत्व द्रवित होता है, प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं, जो सत्ता से अनन्य भूत है। 2 सर्वार्थसिद्धि के अनुसार:- ( 1 ) जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था; या जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं । " (2) जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं।" पंचास्तिकाय का अनुसरण करती व्याख्या राजवार्तिक में भी उपलब्ध होती है। " अनेक पर्यायवाची शब्दों के द्वारा अभिहित द्रव्यः - उत्पाद व्यय एवं धौव्य स्वभाव मय नित्य परिणमनशील अर्थ में प्रयुक्त होने वाले इस 'द्रव्य' शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं। सत्ता, सत् अथवा सत्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि, ये नौ शब्द सामान्य रूप से एक द्रव्यरूप अर्थ के ही वाचक हैं। " द्रव्य के अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति हैं। 7 परंतु अधिक प्रचलित अर्थ द्रव्य, सत्, अथवा भाव है। द्रव्य की परिकल्पना का कारणः - हमें यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि द्रव्य की परिकल्पना क्यों की गयी? इसके समाधान में हमें यही तर्क प्राप्त होता है कि सृष्टि की व्याख्या को समझने के लिये 'द्रव्य' शब्द की 1. अथवा 'द्रव्य भव्ये' व्यं जैनेन्द्र व्याकरण (4.1.158) इत्यनेन निपातितो.... तेन तेन पर्यायेण द्रु इव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते" रा.वा. 5.2.2.436.26 2. "दवियदि गच्छदि ताई ताई सन्भावपज्जयाई जं: दपियं तं भण्णंते, अणण्णभूदंतु सत्तादी" पं. का. 9 3. " गुणैर्गुणान्वा द्रुतं गतं गुणैद्रौष्यते, गुणान्द्रौव्यतीति वा द्रव्यम्” 1.5.17.5 4. यथास्वं पर्यायैडूयन्ते डपंति वा तानि इति द्रव्याणि 5.2.266.10 5. रा. वा. 1.33.1.95.4 6. सत्ता सत्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु । अर्थोविधिरविशेषा एकार्थवाचका अमी शब्दाः " पं. ध.पु. 143 7. " द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्तिरित्यर्थः” स.सि. 1.33.241 12 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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