________________
विश्व के मौलिक पदार्थों के अर्थ में भी 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। वह तत्व जो स्वभाव का त्याग किये बिना उत्पाद व्यय धौव्य युक्त हो. जैन दर्शन का द्रव्य है।' जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में भी 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है।
न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में 'द्रव्य' शब्द गुणकर्माधार अर्थ में प्रसिद्ध है। पृथ्वी, जल, तेज आदि नौ द्रव्य हैं। महाभाष्यकार पतंजलि ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर द्रव्य शब्द के अर्थ की चर्चा की है। उन्होंने एक स्थान पर कहा है कि घड़े को तोड़कर कुण्डी और कुण्डी को तोड़कर घड़ा बनाया जाता है। भिन्न-भिन्न अलंकारों को तोड़कर भिन्न-भिन्न अलंकार बनाये जाते हैं, परंतु उसमें रहने वाला सुवर्ण तत्व नित्य रहता है। भिन्न-भिन्न आकृतियों में स्थिर रहने वाला यह तत्व ही द्रव्य शब्द से अभिहित किया जाता है।' 'योगसूत्र' के व्यासभाष्य में द्रव्य की यह परिभाषा ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है।'
मीमांसक कुमारिल ने भी द्रव्य शब्द की यही व्याख्या की है। पतंजलि ने दूसरी जगह गुणसमुदाय या गुण सन्दाव को द्रव्य कहा है।
महाभाष्यप्रसिद्ध एवं बाद में व्यास आदि द्वारा समर्थित ये सारी व्याख्याएँ जैन दार्शनिक उमास्विाति के तत्वार्थ सूत्र में उपलब्ध होती हैं।'
द्रव्य का निरुक्तिलभ्य अर्थः-व्याकरण की दृष्टि से परम्परा में प्रयुक्त पारिभाषिक द्रव्य शब्द का विशेष अर्थ एवं उसकी व्याख्या को इस प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है:
जैनेन्द्र व्याकरण के अनुसार:-द्रव्य शब्द को इवार्थक निपात मानना चाहिये। "द्रव्यं भव्ये" (4.1.158) इस जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार द्रु की तरह जो हो वह द्रव्य समझना। जिस प्रकार बिना गाँठ की लकड़ी बढई आदि के 1. अपरिच्चत.... दबंति बुच्चंति स.सा. 95 2. वै.सू. 1.1.15 3. द्रयं हि नित्यमाकृतिरनित्या... सुवर्ण कदाचिदाकृत्या.... पिण्डाकृतिमुपमई रुचकाः क्रियन्ते.... आकृत्युपमर्दैन
द्रव्यमेवावशिष्यते पातं. महा. 1.1 4. योगभाष्य 4.13 5. वधमानकमले च.... हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं न नाशीन विको सामान्यनित्यता मी. श्लो. वा 21.23 6. पात. महा. 4.1.3, 5.1.119 7. त.सू. 5.29, 30.37
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org