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________________ था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि के नाम उपलब्ध होते हैं। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे। "There is evidence to show that so far back as the first century B.C., there were people who were worshiping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or parshvanath. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras-Rishabha, Ajitnath and Aristanemi. The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was the founder of Jainism. Indian Philosophy" Vol. I.P. 287. __इन अनुसंधानपरक तथ्यों द्वारा यह प्रमाणित होने के कारण आज विश्व के क्षितिज पर जैन दर्शन की अपनी प्राचीनता में कोई संदेह नहीं करता। साथ ही जैन दर्शन विज्ञानसम्मत नियमनिर्धारण के कारण विश्व धर्म बनने की क्षमता से ओतप्रेत है। जैन दर्शन की समस्त धारणाएँ वैज्ञानिक हैं, इसे हम अगले अध्यायों में विवेचित करेंगे। जैन दर्शन में स्वीकृत द्रव्यः-दर्शन आदि की आंशिक परंतु अनिवार्य भूमिका स्पष्ट करने के पश्चात् हम अपने मूल विषय पर दृष्टिपात करते हैं। मेरा विवेच्य है "द्रव्य एवं उसका स्वरूप। सर्वप्रथम हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैन दर्शन में 'द्रव्य' शब्द किन-किन अर्थों में प्रयुक्त में हुआ है। प्राकृत का 'दब्ब', पालि का 'दब्ब' और संस्कृत का 'द्रव्य' शब्द अत्यंत प्राचीन है। यद्यपि लोकव्यवहार में तथा काव्य, व्याकरण दर्शन आदि शास्त्रों में भिन्न-भिन्न सन्दर्भो में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग प्राचीन एवं बहुत रूढ़ जान पड़ता है तथापि जैन परिपाटी में 'द्रव्य' शब्द अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अनेक अर्थों में भिन्न भी प्रतीत होता है।' नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन निक्षेपों के प्रसंग में ; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के प्रसंग में ; द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के विषय में'; द्रव्याचार्य एवं भावाचार्य में एवं द्रव्यकर्म और भावकर्म के प्रसंग में आने वाला द्रव्य शब्द विशिष्ट अर्थयुक्त है। 1. पं. सुखलालजी :- दर्शन और चिंतन पृ. 143 2. नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्यास :" त.सू. 1.5 3. "दब्बाइं, खेतओण..... भावओ वण्णमंताई भ. 2.1.4 4. द्रव्यास्तिकं..... पर्यायास्तिकम्" तत्वार्थभा. 5.31 5. पंचाशक- 6 6. द्रब्यकर्मण एवं कर्ता'.... भावकर्मणः" प्र.सा.ता.वृ. 122 10 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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