SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्या के अनुसार जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। परंतु मनु ने आस्तिक और नास्तिक की व्याख्या अलग प्रकार से की है। मनु के अनुसार आस्तिक वह है जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करे और नास्तिक वह है जो वेद में विश्वास न करे। परंतु निष्पक्ष और तटस्थ दृष्टिकोण से देखा जाये तो मात्र चार्वाक दर्शन ही नास्तिक दर्शन की कोटि में आता है। जैन दर्शन लोक-परलोक एवं ईश्वर जिसे वह परमात्मा या अर्हत् भी कहता है, को मानता है। अतः जैन दर्शन को नास्तिक कहना युक्ति विरुद्ध है। इसे हम आगे स्पष्ट करेंगे। जैसा कि हम पहले ही लिख आये हैं कि भारत में छः मुख्य दर्शन हैं और उनमें जैन दर्शन की भी परिगणना होती है। अब भारतीय दर्शनों के सन्दर्भ में जैन दर्शन का क्या स्थान है, इसकी विवेचना करेंगे। भारतीय दर्शन में जैन दर्शन की प्राचीनताः-कुछ समय पूर्व तक जैन दर्शन के बारे में इस प्रकार की धारणा व्याप्त रही है कि यह स्वतंत्र दर्शन न होकर बौद्ध दर्शन की शाखा मात्र है। कुछ ने इसे हिन्दू धर्म के अन्तर्गत बताया, परंतु तटस्थ अनुसंधान के कारण अब यह धारणा खंड-खंड हो गयी है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि भगवान महावीर या पार्श्व इसके संस्थापक नहीं हैं, अपितु यह सिद्धान्त तो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित है। डॉ. याकोवी के अनुसार “पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे। जैन परम्परा ऋषभदेव को इस धर्म का प्रवर्तक मानती है और इसके प्रमाण भी हैं।" __डॉ. सर राधाकृष्णन् इसे और अधिक पुष्ट करते हैं। उनके अनुसार जैन परम्परा ऋषभदेव से अपनी उत्पत्ति होने का कथन करती है जो बहुत शताब्दियों पूर्व हुए थे। इस बात के प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन धर्म पार्श्वनाथ और महावीर से पूर्व भी प्रचलित 1. There is nothing to prore that Parshva was the founder of Jainism. Jain tradition in unanimous in making Rishabha the first Tirthankara (as its founder), there may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara. Indian Antiquary Vol. IX P. 163. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy