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'दर्शन' शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है- 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्', वस्तु के सत्य स्वरूप का जहाँ अवलोकन ही चिंतन हो वह दर्शन है। हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं और हमारा क्या लक्ष्य है, यह चिंतन जगत की ही देन है। दर्शन के इन चिंतन बिन्दुओं के बीज प्राचीनतम शास्त्र आचारांग में स्पष्टतया प्राप्त होते हैं।'
दर्शन शब्द की फिलोसोफी से तुलनाः-पाश्चात्य विचारशास्त्र की सामान्य संज्ञा 'फिलोसोफी' है। यह शब्द दो शब्दों के मिश्रण से बना है-'फिलास' अर्थात, प्रेम या अनुराग और 'सोफिया' अर्थात् विद्या। इस शब्द का प्रचलन सर्वप्रथम ग्रीक देश में हुआ। इस संयुक्त शब्द के अर्थ से हमें पाश्चात्य दृष्टिकोण को समझने में सरलता आती है। पाश्चात्य दार्शनिक विद्यानुरागी या प्रज्ञावान् बनना चाहता है। प्रत्येक वस्तु में छानबीन करके मनमानी कल्पना करने के लिए पश्चिम जगत् विख्यात है। पश्चिम का दार्शनिक उस नाविक के समान है जो बिना किसी गंतव्य स्थल का निर्धारण किये अपनी नौका विचार सागर में तैरने के लिए छोड़ देता है। अगर नाव घाट पर लग जाये तो भी आनंद और न लगे तो भी आनंदा
भारतीय दार्शनिक लक्ष्य का निर्धारण करके चिंतन के सागर में उतरता है, और इसके फलस्वरूप मुक्ति मंजिल स्वरूप आत्मशुद्धि का मोती उसे अवश्य हाथ लगता है।
पश्चिम में धर्म से भिन्न दर्शन छठी शताब्दी पूर्व यूनान में प्रारंभ हुआ। एक हजार वर्ष तक लगभग विचरण करता हुआ दर्शन एक बार फिर ईसाई धर्म में निमग्न हुआ। पाँचवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का समय दर्शन का अंधकारमय युग कहलाता है, क्योंकि दर्शन इस समय ईसाई धर्म का दास रहा।
भारत में इस प्रकार की हठधर्मिता कभी नहीं रही। श्री हैपल के अनुसार "भारत में धर्म की रूढ़ि या हठधर्मिता का स्वरूप कभी प्राप्त नहीं रहा वरन् यह मानवीय व्यवहार की ऐसी क्रियात्मक परिकल्पना है जो आध्यात्मिक 1. आचारांग 1.1.2 2. बलदेव उपाध्याय- भारतीय दर्शन उपोदात पृ. 5 3. प्रवचनभक्ति श्रुतसंपद्धर्मा... जनकानि प्रशमरति 141 4. ग्रीक एवं मध्ययु. दर्शनों का वै. चिंतन जगदीश. 1.2
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