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अंतर्मन में आसीन, रग-2 में बसी आगमज्योति अध्यात्मयोगिनी, अनेकों ग्रंथों की निर्मात्री अपनी गुरूवर्या प्रवर्तनीजी श्री प्रमोद श्री जी.म.सा. के श्री चरणों में, जिनके नाम से जुड़ने का सौभाग्य मैंने उपलब्ध किया।
___ मैं इन क्षणों में अपनी हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त किये बिना नहीं रह सकती - मेरे पितातुल्य अभिभावक एवं प्रारंभिक शिक्षा से आज तक की शिक्षायात्रा से जुड़े मेरे प्रेरणादीप श्री आर.एम. कोठारी आई.ए.एस. जोधपुर के प्रति! यद्यपि अभिव्यक्ति की एक सीमा है और वह मात्र चार पंक्तियों में सिमट गयी है पर मेरे भावों में उनके प्रति असीम आस्था के स्वर गूंज रहे हैं। क्योंकि अगर वे मुझे अध्ययन से जुड़े रहने की निरंतर निःस्वार्थ प्रेरणा नहीं देते तो संभवतः यह यात्रा अधूरी रह सकती थी। उन्होंने साध्वी के रूप में मुझे सम्मान तो दिया ही, उससे भी अधिक पिता बनकर स्नेहभीगी प्रेरणा भी दी।
__ मैं अपने मार्गदर्शक विद्वद्वर्य सरलता की प्रति मूर्ति श्री डॉ. वाई. एस. शास्त्री आचार्य, एम.ए.पी.एच.डी. (Reader in Philosophy) की हार्दिक कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरे अध्यायों को अन्यायन्य अध्ययन अध्यापन की व्यस्तता के बावजूद देखा, जांचा, परखा एवं अविलंब मुझे लौटा दिया। मेरी अनुकूलता को उन्होंने प्रमुखता दी। अगर उनका अपेक्षित सानुग्रह सहयोग नहीं मिलता तो प्रस्तुति की अवधि और भी बढ़ सकती थी।
____ मैं डॉ. नरेन्द्र भानावत के अगाध ज्ञानप्रेम को भी विस्मृत नहीं कर पा रही हूँ। वे मेरे अनुरोध को स्वीकार कर अपनी धर्मपत्नी डॉ. शान्ता भानावत के साथ मालपुरा पधारे एवं मुझे विषय से संबन्धित मार्गदर्शन दिया। आज इस ग्रन्थ के प्रकाशन की वेला में उनकी अनुपस्थिति मुझे व्यथित कर रही है। मैं आत्म प्रिय स्व. डॉ. श्रीमती शान्ता भानावत एवं स्व. डॉ. नरेन्द्र भानावत की पवित्रात्मा को विनम्र प्रणाम करती हूँ।
पांडुलिपि देखने में मुझे श्री मिलापचंदजी जैन पूर्व परीक्षा नियंत्रक राजस्थान विश्वविद्यालय का सहयोग मिला। मैं उनके सहयोगी व्यक्तित्व के प्रति शुभकामनाएँ समर्पित करती हूँ।
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