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रखते थे कि मैं भी आगमज्ञान को आत्मसात् करूँ। उनके अनुरूप बनने की मेरी अभिलाषा तो जरूर है पर आशा नहीं, फिर भी उनके ज्ञानालोक में से प्रकाश की कुछ रश्मियाँ मेरे पल्ले भी आए और आगमों के आंशिक ज्ञान को उपलब्ध करूँ,बस इसी भावना को मूर्तरूप देते हुए इस विषय का चुनाव किया और आत्मतोष है कि अपेक्षित ज्ञानार्जन यद्यपि नहीं हुआ फिर भी 'कुछ' कदम अवश्य बढ़े।
विषय का पंजीकरण होने के बाद कुछ संयमी जीवन से जुड़ी व्यस्तता होने के कारण कार्य में शिथिलता आ गयी थी, परंतु जब गतवर्ष की जन्मदिन की कविता में पूज्य, बड़े बंधु गणिवर्य श्री मणिप्रभ सागरजी म.सा. ने अपने अंतर्मन में भरे स्नेह से लबालब "पी. एच. डी. करना ही है और वह भी शीघ्र" ये उद्गार व्यक्त किये तो मैं इस कार्य को आगे बढ़ाने में तत्पर बनी। जन्म-दिन की कविता का वह पद्यांश :
"वो सूर्योदय जिस दिन होगा, मुझको यह संवाद मिलेगा। बनोगी जब तुम "डॉक्टर" बहिना, मेरे मन का फूल खिलेगा। शोध ग्रंथ की निर्मिति में श्रम समय तुम्हें देना है सारा। एक वर्ष में पूर्ण करूँगी, एक यही हो तेरा नारा।।
उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त कर मैं अपने समर्पण को नहीं आँकना चाहती। क्योंकि वे सर्वतोभावेन मेरी श्रद्धा और स्नेह के केन्द्र हैं।
इसी क्रम में एक पूर्ण संकल्प के साथ मैं मालपुरा गुरुदेव श्री जिन कुशल सूरि के धाम पहुँची और दर्शन के प्रथम क्षण में ही मैंने गुरुदेव की चरण पादुका के समक्ष आत्मनिवेदन किया "मुझे इस स्थान पर अपना अध्ययन करना ही है जो तेरे आशीर्वाद बिना असंभव है। "प्रयल मेरा व कृपा तेरी'। मैं निश्चित रूप से कह सकती हूँ- मेरे इस निवेदन को गुरुदेव ने सुना ही नहीं, पूर्ण आशीर्वाद भी दिया और इसी कारण यह शोध प्रबंध कुछ ही माह में संपूर्ण तैयार हो गया। मैं अभिभूत हूँ, गुरुदेव की इस कृपामयी अमीवृष्टि पर!
मैं समग्र भावेन सादर सविनय नतमस्तक हूँ, दिव्याशीष- प्रदातृ, मेरे
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