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________________ के संबंध में प्रमुख भारतीय दार्शनिकों के विचार एवं द्रव्य के सामान्य स्वरूप पर चिंतन किया है। द्वितीय अध्याय में द्रव्य के स्वरूप और लक्षण का विशद, तार्किक रूप से स्पष्टीकरण करते हुए द्रव्य के गुण और पर्याय का सर्वांगीण विश्लेषण किया है। इसके तृतीय अध्याय में षड्द्रव्यों की चर्चा करते हुए जीवास्तिकाय पर जैन एवं इतर दार्शनिकों के मत का उल्लेख किया है। साथ ही आत्मा के अस्तित्व को भी विभिन्न तर्क-संगत मतों से प्रतिपादित करते हुए जीव के समस्त वर्गीकरण को प्रस्तुत किया है। __ इसके चतुर्थ अध्याय में अजीवास्तिकाय जिसके तहत धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल समाविष्ट होते हैं, उसे सिद्ध करते हुए इनका जीव पर उपकार अभिव्यक्त किया है। अंत में समस्त अध्यायों पर उपसंहार रूप अपने चिंतन का प्रस्तुतीकरण करते हुए सभी अध्यायों का सार संकलित किया गया है। इस प्रकार पाँच अध्यायों से युक्त शोध प्रबंध की प्रस्तुति वेला में निश्चित ही मैं आतंरिक आनंद और अह्लाद का अनुभव कर रही हूँ। यद्यपि मैं महसूस करती हैं कि द्रव्य के स्वरूप पर आज तक खूब लिखा जा चुका है यह विषय ही इतना गहरा व विस्तृत है कि इस पर जितना लिखा जायेगा, थोड़ा ही होगा, क्योंकि यह त्रिपदी ही तो आंगमों का मूल है। फिर भी मैं महसूस करती हूँ कि इस 'थीसिस' का अपना मूल्य और उपयोग होगा। द्रव्य जैसे गूढ़ विषय के चुनाव पर यद्यपि मुझे शास्त्रीय ज्ञान की अल्पज्ञता का भान था, फिर भी मुझे लेना यही विषय था। इसका कारण गुरुवर्या श्री की आतंरिक उत्कट अभिलाषा एवं उनका आदेश था। वे स्वयं अपने युग की आगम ज्योति कहलाते थे और मेरे से वे अपेक्षा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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