________________
को कूटस्थ-नित्य मानते हैं, कुछ आत्मा को भोक्ता, कुछ भूतचतुष्टय को ही चेतन मानते हैं, परंतु जैन दर्शन का दृष्टिकोण भिन्न है। जैन दर्शन मुख्य दो तत्त्व मानता है- चेतन और अचेतन। अचेतन को पाँच भागों में विभक्त किया और इस प्रकार जैन दर्शन की संपूर्ण सृष्टि छः द्रव्यों के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाती है।
जैन दर्शन की द्रव्य विषयक व्याख्या के अनुसार जो मूल स्वभाव का त्याग किये बिना उत्पाद विनाश करे वह द्रव्य है, जैसे जीव का स्वभाव है उपयोग या चेतना। जीव इस स्वरूप से कभी अलग नहीं होता। वह चेतना अभिव्यक्त हो या नहीं या अन्यों के अनुभव में आये या नहीं पर न्यूनाधिक रूप से रहती अवश्य है। जीव की पर्याय बदलती है, कभी वह नारकी होता है तो कभी देव और कभी मनुष्य परंतु रहेगा तो जीव ही, अजीव नहीं होगा।
व्यय और उत्पाद तो वस्तु के दोनों अनिवार्य सिरे हैं। जहाँ उत्पाद है, वहाँ व्यय भी अवश्य है, जहाँ व्यय है, वहाँ उत्पाद भी अवश्य। हम द्रव्य को देख नहीं पाते, हम उसकी पर्याय मात्र देखते हैं। हमारा सारा ज्ञान पर्याय का ज्ञान है। द्रव्य अव्यक्त होता है, पर्याय व्यक्त।
हम आकृति पर्याय देखकर तय करते हैं, कि यह मनुष्य है। हम अपनी आँख से उसका रूप देख सकते हैं, कान से शब्द सुनकर निर्णय कर सकते हैं। उसकी आकृति, उसके शब्द ये सब पर्याय है। इस शब्द और स्वरूप का कारण उसकी आत्मा तो अव्यक्त है और उस आत्मा की ऐसी एक नहीं अनेक पर्यायें भूत एवं भविष्यत काल में हो चुकी हैं, परंतु वह आत्मा वैसा ही रहा। पर्याय के परिवर्तन से आत्मा का परिवर्तन जैन दर्शन को मान्य नहीं है।
इस उत्पाद व्यय और ध्रौव्य के स्वरूप के स्पष्टीकरण में जैन दर्शन का स्याद्वाद सिद्धांत अत्यंत उपयोगी सिद्ध हआ। अगर स्याद्वाद को नहीं अपनाया होता तो जैन दर्शन भी उन्हीं आरोपों और दोषों से घिर जाता जो एकांतवादी दर्शनों में आए।
महावीर ने स्याद्वाद के आधार पर ही सारी व्याख्याएं दीं। उनसे पूछाआत्मा नित्य है या अनित्य? महावीर ने कहा-अस्तित्व की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य। इस स्याद्वाद के कारण जैन दर्शन की आत्मा
211
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org