________________
को माया या असत्य के रूप में स्वीकृति देता है। यह न्याय और युक्तियुक्त कैसे है ?
उपनिषद् के अंश की तुलना एक अपेक्षा से अर्थात् आत्मा परमात्मा के दृष्टिकोण से की जा सकती है। परमात्मा पूर्ण है, आत्मा अपूर्ण। उसकी मंजिल का प्रारंभ निगोद से है, पर अंत परमात्मा या सर्वज्ञता में है, परंतु वह किसी द्वारा सर्जित नहीं है, अंश अपूर्णता की अपेक्षा से है।
सांख्य ने पुरुष को भोक्ता तो स्वीकार किया, पर कर्त्ता नहीं । द्वैतवादी सांख्य के पुरुष की तुलना जैन दर्शन के सर्वज्ञ से की जा सकती है और नहीं भी। सांख्य का पुरुष विकार रहित शुद्ध स्वरूपी है, पर साथ ही वह इन्द्रियों के विषय का भोक्ता है तो कर्त्ता कौन है ? अगर कर्त्ता इन्द्रियां या प्रकृति मात्र है तो इन दोनों का संयोग क्यों और किसने किया और क्यों इन्द्रियाँ पुरुष के लिये सुख के साधन उपलब्ध करवाती है? कर्त्ता भोक्ता भन्न कैसे संभव हैं।
बौद्ध दर्शन आत्मा को क्षणिक भी मानते हैं और साथ ही उनमें मोक्ष की, पुनर्जन्म की परिकल्पना भी उपलब्ध होती है। मोक्ष और पुनर्जन्म किसका होगा क्योंकि जो पुरुषार्थ या त्रिविध साधना का कर्त्ता है, वह तो दूसरे ही क्षण बदल जाता है।
उपनिषद् मात्र ब्रह्म को ही सत्य स्वीकार करके संपूर्ण संसार को मिथ्या घोषित करते हैं, परंतु यह तर्क संगत नहीं हो सकता । ब्रह्म तो चेतन हैं उससे अचेतन तत्व कैसे उत्पन्न हुआ होगा ? ब्रह्म पूर्ण सुखी आनंदमय है तो उसी के अंश दुःखमय कैसे संभव है? क्रिया परिणाम भिन्न-भिन्न क्यों है? एक की मृत्यु दूसरे का जन्म, एक के कर्म स्वर्ग योग्य, दूसरे के नरक के योग्य कैसे हो सकते हैं?
जो संसार हमारे सामने हैं, उसे सर्वथा मिथ्या कैसे कहा जा सकता है जबकि वह विद्यमान है, उसका अनुभव किया जाता है। जैनाचार्यों ने यद्यपि संसार को अशाश्वत कहा पर सर्वथा नहीं, जीव और संसार या पुद्गल के संयोग की अपेक्षा से कहा है, अन्यथा जैन दर्शन की तो यह स्पष्ट मान्यता है कि न कोई नया द्रव्य उत्पन्न होता है, न पुराना नष्ट। कुछ दार्शनिक आत्मा
210
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org