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काल द्रव्यः-जैन दर्शन षड् द्रव्य मानता है। काल चौथा अजीव द्रव्य है जिसका विवेचन यहाँ हम करने जा रहे हैं।
जैन दर्शन के श्वेतांबर दिगंबर दोनों ही परम्पराओं ने काल द्रव्य को स्वीकार तो किया है, परंतु काल द्रव्य की स्वतंत्रता पर मतभेद है।
जैन दर्शन में दो प्रकार की विचारधारा काल के संबंध में पायी जाती है:(1) काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वाली और (2) दूसरी विचारधारा काल को स्वतंत्र नहीं मानने वाली।
इन दो विचारधाराओं के बावजूद इसमें सभी एकमत हैं कि काल द्रव्य अवश्य है।
प्रथम विचारधारा के समर्थक कुंदकुंदाचार्य, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानंदी, नेमीचन्द्र एवं आगमों में भगवती और उत्तराध्ययन हैं एवं द्वितीय विचारधारा के समर्थक ठाणांग, जीवाभिगम, आचार्यों में उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि आदि हैं। अब इन दोनों विचारधाराओं का एवं काल के स्वरूप का हम विवेचन करेंगे।
ठाणांग के टिप्पण के' अनुसार काल वास्तविक द्रव्य नहीं है, वह औपचारिक द्रव्य है। वस्तुतः वह जीव और अजीव का पर्याय है। इसलिये उसे जीव और अजीव दोनों कहा है।
पंचास्तिकाय में कुंदकुंदाचार्य ने काल की दूसरी विचारधारा को ही पुष्ट किया है। काल परिणाम से उत्पन्न होता है और परिणाम द्रव्यकाल से उत्पन्न होता है। काल क्षणभंगुर भी है और नित्य भी।'
इसे अमृतचंद्राचार्य ने विशेष स्पष्ट किया है। व्यवहार काल जीव और पुद्गल के द्वारा स्पष्ट होता है और निश्चयकाल जीव पुद्गलों के परिणाम की अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा (जीव और पुद्गल के परिणाम अन्यथा नहीं बन सकते इसलिये) निश्चित होता है। 1. ठाणांग टिप्पण नं. 122 पृ. 140 2. ठाणांग 2.387
3. पंचास्तिकाय वृत्ति 100.
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