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________________ काल नित्य और क्षणिक क्यों और कैसे हैं? इसे भी कुंदकुंदाचार्य ने स्पष्ट किया है। “काल" यह कथन सद्भाव का प्रेरक है, अतः नित्य है। (यह निश्चयकाल की अपेक्षा से हैं।) उत्पन्नध्वंसी व्यवहारकाल (यद्यपि क्षणिक हैं फिर भी) प्रवाह अपेक्षा से दीर्घ स्थिति युक्त भी कहा जाता है।" कुंदकुंदाचार्य ने अगले श्लोक में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव की तरह काल को भी द्रव्य तो माना है, परंतु काय नहीं। आचार्य उमास्वाति ने यद्यपि अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत काल को नहीं गिनाया था, पर आगे जाकर उन्होंने सूत्र में 'च' शब्द का प्रयोग करते हुए काल को भी द्रव्य के रूप में मान्यता देदी'। प्रवचनसार में कुंदकुंद ने स्पष्ट किया है कि एक समय में उत्पाद व्यय और धौव्य काल में सदा पाये जाते हैं। अतः कालाणु का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। भाष्यकार अकलंक ने इसे “द्रव्य क्यों है?" इसका कारण भी बता दियां है। "उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" और "गुणपर्यायवत् द्रव्यं" इन लक्षणों से युक्त होने से आकाश आदि की तरह काल भी द्रव्य है। काल में ध्रौव्य तो स्वप्रत्यय है ही क्योंकि वह स्वभाव में सदा व्यवस्थित रहता है। व्यय और उत्पाद अगुरुलघुगुणों की हानि वृद्धि की अपेक्षा स्वप्रत्यय है तथा पर द्रव्यों में वर्तना हेतु होने से पर प्रत्यय भी है। काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पाद रूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं, अतः वह द्रव्य है।' यहाँ एक अन्य प्रश्न और होता है कि अगर काल द्रव्य है तो उसे धर्म और अधर्म आदि के साथ क्यों नहीं स्पष्ट किया? पूज्यपाद ने इसका समाधान इस प्रकार दिया है - "अगर वहाँ काल द्रव्य का कथन करते तो इसे काययुक्त मानना पड़ता और कालद्रव्य में मुख्य अथवा उपचार दोनों रूप से प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है। धर्मादि को मुख्यरूप से प्रदेशप्रचय कहा है और अणु को उपचार से। परंतु काल में दोनों नहीं है अतः काल काय नहीं है। 1. पं. का. 101 2. पं. का. 102 3. त. सू. 5.16 4. प्रवचनसार 143 5. त. रा. वा. 5.39 1-2 501 ___169 169 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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