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और इस संबंध में समाधान चाहा। भगवान् ने कहा- "लोक चार प्रकार का है- द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक।
द्रव्यलोक की अपेक्षाः-लोक एक है और अंतवाला है।
क्षेत्रलोक की अपेक्षाः-असंख्य कोड़ाकोडी योजन तक लंबा है, असंख्य कोड़ाकोड़ी परिधि वाला है, फिर भी सांत है।
काल की अपेक्षाः-भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों में शाश्वत है। ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित, अव्यय, और नित्य है।
भावलोक की अपेक्षाः-अनंत वर्णपर्यायरूप, गंधपर्यायरूप, रस पर्यायरूप और स्पर्श पर्यायरूप है। इसी प्रकार अनंतसंस्थान पर्यायरूप, अनंतगुरूलघुपर्यायरूप, एवं अनंतअगुरू लघुपर्यायरूप है। इसका अंत नहीं है।
इस प्रकार द्रव्यलोक एवं क्षेत्रलोक अन्तसहित है, काल एवं भावलोक अंतरहित।'
आकाशास्तिकाय के भेवः-भगवती एवं ठाणांग के अनुसार आकाश दो प्रकार का है- लोकाकाश और अलोकाकाश।'
लोकाकाश और अलोकाकाश में क्या भिन्नता है? तब भगवान ने कहा लोकाकाश में जीव, जीव के देश और जीव के प्रदेश हैं। अजीव भी है। अजीव के देश और अजीव के प्रदेश भी है। उन जीवों में नियमतः एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय है। अजीव भी रुपी और अरुपी दोनों है। रुपी के स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणुपुद्गल इस प्रकार चार भेद हैं। जो अरुपी है उनके पाँच भेद-धर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, और धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नोअधर्मास्तिकाय का देश, और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय है।'
अलोकाकाश में न जीव है न अजीवप्रदेश है। वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनंत अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है। अनंतभागकम सर्वाकाशरूप है।' 1. भगवती 2.1.24 2. "दुविहे आगेसे पणते तं जहा- लोयागासे य अलोयागासे य" भगवती 2.10.10 ठाणांग 2.152 3. भगवती 2.10.11 4. भगवती 2.10.12
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