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________________ जीव और पुद्गल तो जिस प्रकार से जल में हंस अवगाहन करता है, वैसे ही लोकाकाश में करते हैं। ये अल्पक्षेत्र और असंख्येय भाग को रोकते हैं और क्रियावान हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। अतः इनके अवगाह में संयोग और विभाग द्वारा आकाश उपकार करता है।" धर्म और अधर्म के अनादिसंबंध और अयुतसिद्धत्व के विषय में अनेकांत हैं। पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता होने पर व्यय और उत्पाद नहीं होता और पर्यायार्थिकनय की मुख्यता और द्रव्यार्थिकनय की गौणता होने पर सादिसंबंध और युतसिद्धत्व हैं क्योंकि आकाश भी द्रव्य है और इस अपेक्षा से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त होना इसका लक्षण __आकाश द्रव्यों से अनन्य है और द्रव्य आकाश से अनन्य हैं:-जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, तथा काल लोक से अनन्य है और लोक इन पाँचों द्रव्यों से अनन्य है। लोक के बिना अवशिष्ट पाँचों द्रव्यों का अस्तित्व नहीं है और लोकाकाश भी इनसे रहित नहीं होता। धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों अस्तिकायों का एक क्षेत्रावगाही और समान परिमाण वाले होने के कारण एकत्व है। फिर भी इन तीनों के लक्षण भिन्न हैं। और भिन्न हैं, अतः अन्यत्व भी है।' अन्य द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, परंतु आकाश अनंतप्रदेशी है।' रिक्त स्थान को आकाश कहते हैं। यद्यपि इस खाली जगह में वायु होने के कारण वायुमंडल कहा जाता है, परंतु वायु और आकाश अलग-अलग हैं। वायु जिसमें रहती है, संचार करती है, वह आकाश है। ऊपर अंतरिक्ष जहाँ आज के भेजे गये वैज्ञानिक यंत्र स्पूतनिक आदि घूम रहे हैं वहाँ वायु नहीं है, परंतु आकाश अवश्य है। जिस खाली जगह में ये वैज्ञानिक उपकरण घूम रहे हैं वह आकाश है। चतुष्टयी की अपेक्षा लोकः-लोक सादि है या अनादि एवं लोक सांत है या अनंत! इस संबंध में स्कंदक को जिज्ञासा हुई। वे महावीर के पास पहुँचे 1. सभाष्यतत्वार्थाधिगम सूत्र 5.18.262 2. त. रा. वा. 5.18.5.466, 67 3. पं. का. 91 4. पं. का 9 5. "लोयालोयप्पमाणमेते अणंते चेव" भगवती 2.10.4 एवं "आकाशस्यानंताः" त. सू. 5.9 149 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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