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________________ धर्म और अधर्म आकाश का अवगाहन करके रहते हैं, यह एक औपचारिक प्रयोग है। हंस जल का अवगाहन करके रहता है, इस तरह का मुख्य प्रयोग नहीं है। आधार और आधेय में जहाँ पौर्वापर्य संबंध हो, वह मुख्य प्रयोग होता है। संपूर्ण लोकाकाश और धर्म और अधर्म की व्याप्ति है । ' धर्मास्तिकायादिको अवगाहन देने वाला लोकाकाश है, परंतु आकाश का अपना कोई आधार नहीं है, क्योंकि आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है जिसमें आकाश आधेय बन सके। अतः अनंत यह आकाश स्वप्रतिष्ठ है। आकाश का आधार अन्य, फिर उसका कोई अन्य आधार मानने में अनवस्था होती है । " एवंभूतनय की दृष्टि से सारे द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं। इनमें आधार आधेय भाव नहीं है। व्यवहार नय से आधार आधेय की कल्पना होती है। व्यवहार से ही वायु का आकाश, जल का वायु, पृथ्वी का जल, सभी जीवों का पृथ्वी, जीव का अजीव, अजीव का जीव, कर्म का जीव और जीव का कर्म, धर्म, अधर्म तथा काल का आकाश आधार माना जाता है। परमार्थ से तो वायु आदि समस्त स्वप्रतिष्ठित है। 1 धर्म और अधर्म को भी आकाश ही अवगाहन देता है, परंतु इनमें पौर्वापर्य संबंध नहीं है, जैसा कुण्ड और बोर में है। इनका संबंध शरीर और हाथ जैसा है। हाथ और शरीर में आधार आधेय भाव हैं फिर भी न तो पूर्वापरकाल हैं, न युतसिद्धि। दोनों युगपत् उत्पन्न होते हैं और अयुतसिद्ध होते हैं। ' धर्म और अधर्म तिलों में तैल की तरह सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहता है। " अवगाह दो प्रकार का माना गया है-पुरुष के मन की तरह और दूसरा दूध में पानी की तरह अथवा जैसे आत्मा संपूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहती है, वैसे ही धर्म और अधर्म भी संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहते हैं । ' 1. त. रा. वा. 5.18.2.466 2. लोकाकाशेवगाहः त. सू. 5.12 3. त. रा. वा. 5.12 2-4, 454 4. वहीं 5. 12.5, 6,454, 55 5. वहीं 5.12.89 455 6. त. सू. 5.13 7. सभाष्यतत्वार्थाधिगमसूत्र 5.13.257 Jain Education International 2010_03 148 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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