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यह अलोकाकाश न तो धर्मास्तिकाय से, न अधर्मास्तिकाय से, न आकाशास्तिकाय से स्पष्ट है। आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश से ही स्पष्ट है। पृथ्वीकाय अथवा अद्धाकाल से भी स्पष्ट नहीं है।' जबकि लोक धर्मास्तिकाय से एवं उसके प्रदेश से स्पष्ट है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से एवं उसके प्रदेश से स्पष्ट है। आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश से स्पष्ट है। पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से वनस्पति तक स्पष्ट है। त्रसकाय से कथंचित् स्पष्ट है कथंचित् स्पष्ट नहीं है। (जब केवली समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने आत्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं। केवली त्रसकाय के अंतर्गत आते हैं।) अद्धासमय देश से स्पष्ट होता भी है और नहीं भी। (अद्धाकाल अढाई द्वीप में ही है, आगे नहीं।) ।
बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार जो धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल को अवकाश दे, वह लोकाकाश और उस लोकाकाश से बाहर अलोकाकाश है।'
लोक का विवेचन बौद्ध मत में:-आचार्य वसुबंधु ने लोक के संबंध में इस प्रकार मंतव्य स्पष्ट किया है
__ "लोक के अधोभाग में सोलह लाख योजन ऊँचा अपरिमित वायुमंडल है। उसके ऊपर 11 लाख 20 हजार योजन ऊँचा जल मंडल है। उसमें तीन लाख बीस हजार योजन कंचन मय भूमण्डल है। जल मंडल और कंचन मंडल का विस्तार 12 लाख 3 हजार 450 योजन तथा परिधि 36 लाख 10 हजार 350 योजन प्रमाण है।
कंचनमय वायुमंडल के मध्य में मेरु पर्वत है। यह 80 हजार योजन नीचे जल में डूबा हुआ है तथा इतना ही ऊपर निकला हुआ है।' इससे आगे 80 हजार योजन विस्तृत और दो लाख चालीस हजार योजन प्रमाण परिधि से संयुक्त प्रथम समुद्र है जो मेरु को घेर कर अवस्थित है। इससे 1. प्रज्ञापना 15.1.1005 2. प्रज्ञापना 15.1.1002 3. बृहद् द्रव्य संग्रह 22. 4. अभिधर्मकोष 3.45 5. अभिधर्मकोष 3.46 6. अभिधर्मकोष 3.47, 148 7. अभिधर्मकोष 3.50
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