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की उत्पत्ति में कुम्हार।
तत्वार्थसूत्रभाष्य में उद्धृत इस पद्य से भी इसकी पुष्टि होती है।'
निमित्तकारण दो प्रकार के हैं- एक तो शुद्ध निमित्तकारण तथा दूसरा अपेक्षा निमित्त कारण। स्वाभाविक तथा कर्ता के प्रयोग से जहाँ क्रिया होती है, वह शुद्ध निमित्तकारण एवं जहाँ स्वाभाविक परिणमन मात्र होता हो, वह अपेक्षा निमित्त कारण कहलाता है।'
साधारण बोलचाल की भाषा हो या धर्म साहित्य हो, धर्म शब्द की परिभाषा या उसका प्रयोग शुभ, प्रशंसनीय, उचित व्यवहार आदि में किया जाता है। यहाँ धर्मास्तिकाय इन सभी व्यावहारिक अर्थों में प्रयुक्त न होकर एक पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जैन दर्शन ने जीव द्रव्य की तरह धर्मास्तिकाय को भी द्रव्य माना है तथा उसे भी गुण और पर्याय युक्त कहा है।
अन्य द्रव्यों की तरह धर्म में भी सामान्य और विशेष दोनों गुण उपलब्ध होते हैं। अमूर्त, निष्क्रिय, द्रव्यत्व, ज्ञेयत्व आदि सामान्य एवं इसका विशेष गुण गति प्रदान करना है।
धर्मास्तिकाय को तत्वार्थ सूत्र में निक्रिय द्रव्य' कहा है क्योंकि क्रिया की परिभाषा है- अतरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है।
यहाँ प्रश्न होता है, जब धर्मास्तिकाय निक्रिय है तो इसमें उत्पाद आदि संभव नहीं है और उत्पाद आदि लक्षणों के अभाव में इसे द्रव्य नहीं कहा जा सकता।
श्री पूज्यपाद ने समाधान दिया- यद्यपि धर्म निष्क्रिय है तथापि इसमें 1. षड्दर्शनसमुच्चय टीका 49.167 2. "निर्वतक-निमित्तं परिणामीच विधेष्यते हेतुः। कुंभकारी धर्वा मुच्चेति समसंख्यम्" उद्घतेय त. भा.टी.1517. 3. षड्दर्शन समुच्चय टीका 49.168. 4. "गमणणिमित्तं धम्म" नियमसार 30. 5. "निक्रियाणिच" त. सू. 5.7 6. स.सि. 5.7.539.
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