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असंख्यात प्रदेश हैं। यह स्वयं गमन करनेवाले जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षा कारण है, प्रेरणा करके इनको चलाता नहीं है। अगर चलते हैं तो चलने में सहकारी कारण अवश्य बनता है।' ____ पंचास्तिकाय के अनुसार धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगंध, अवर्ण, अशब्द, लोकव्यापक, अखण्ड, विशाल और असंख्यात प्रदेशी है।'
स्पर्शादि से रहित होने के कारण ही धर्मास्तिकाय अमूर्त स्वभाववाला है और इसीलिए अशब्द भी है। संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त रहने के कारण लोकव्यापक है। अयुत सिद्ध प्रदेशी होने के कारण अखंड है। स्वभाव से ही सर्वतः विस्तृत होने से विशाल है। निश्चयनय से एक प्रदेशी होने पर भी व्यवहार नय से असंख्यात प्रदेशी है।'
__द्रव्य का लक्षण उत्पाद व्यय और ध्रौव्य है। यह लक्षण धर्मास्तिकाय में भी प्राप्त होता है। धर्मास्तिकाय अगुरु लघु रूप से सदैव परिणमित होता है, फिर भी नित्य है, गतिक्रिया में कारण भूत होने पर भी स्वयं अकार्य है।'
जैसे मछलियों को पानी चलने में सहयोग देता है वैसे ही धर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गल को उदासीन सहयोग करता है।'
कारणों के प्रकार:-षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने कारण तीन प्रकार के बताये हैं- परिणामी कारण, निमित्तकारण और निवर्तक कारण।
परिणामीकारणः-जो स्वयं कार्यरूप से परिणमन करे, कार्य के आकार में बदल जाय वह परिणामी कारण है जैसे घड़े में मिट्टी (इसे उपादान कारण भी कहते हैं)।
निमित्त कारण वे हैं जो स्वयं कार्यरूप से परिणत तो न हो, पर कर्ता को कार्य में सहायक हो, जैसे घड़े की उत्पत्ति में दण्ड, चक्र आदि।
निर्वर्तक कारण- कार्य का कर्ता निर्वर्तक कारण होता है जैसे कि घड़े 1. षड्दर्शन समुच्चय टीका 49.166 2. पंचास्तिकाय 83 3. प.का.टी. 83 4. वही 84 5. वही 85
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