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अजीव का स्वरूप
इस चौथे अध्याय में जीव के विरूद्ध स्वभाव वाले अजीव का विवेचन करेंगे। भगवती में अस्तिकाय के संबंध में प्रश्न पूछा गया - अस्तिकाय कितने हैं ?
भगवान् ने कहा- अस्तिकाय पाँच हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । ' अस्तिकाय का अर्थ है बहुप्रदेशी | जिनके टुकड़े न हो सके ऐसे अविभागी प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते हैं। 2
धर्मास्तिकाय का लक्षणः- धर्मास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है, क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है, काल की अपेक्षा वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, अतः वह ध्रुव निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है । गुण की अपेक्षा गमन गुण है, गति में उदासीन सहायक है । '
उत्तराध्ययन में भी धर्मास्तिकाय के गमन गुण की पुष्टि की गई है। " तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने भी धर्मास्तिकाय को गमन में उपकारी बताया
है। "
श्री पूज्यपाद स्वामी ने गति की व्याख्या की है। एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने को गति कहते हैं । "
टीकाकार गुणरत्नसूरि के अनुसार धर्मद्रव्य लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश वाले सभी प्रदेशों में पूरी तरह से व्याप्त है। इसके भी लोकाकाश की तरह
1. भगवती 2.10.1 एवं ठाणांग 5.170.
2. षड्दर्शन समुच्चय टीका 4.9.165 3. ठाणांग
4. गइ लक्खणी धम्मो । उत्तराध्ययन 28.9
5. त सू. 5.17
6. स. सि. 5.17.559
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