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________________ मुक्ति का साधनः-तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र को माना है। समयसार में कुंदकुंदाचार्य के अनुसार जो आत्मा को और बंध को जानकर बंध से विरक्त होता है, वही मोक्ष की प्राप्ति करता है।' आत्मा और बंध प्रज्ञारूपी छेदी द्वारा भिन्न किये जाते हैं।' प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया हुआ (बंध और चैतन्य) शुद्ध आत्म-स्वरूप ही मेरा है, अन्य सब पर द्रव्य हैं, ऐसा मानना चाहिये। कुंदकुंदाचार्य ने समयसार में आगे यह भी स्पष्ट किया है कि मात्र जानना ही पर्याप्त नहीं है। बंध, स्थिति, स्वभाव, आदि को जानने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती, परंतु उन बंधनों को काटने की अनुकूल प्रक्रिया अपनाने पर ही अर्थात् रागादि भाव से जीव जब शुद्ध होता है, तभी उसे मुक्ति प्राप्त होती है। अनंत जीव आज तक मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं, परंतु संसार में आत्माएँ फिर भी बनी रहती हैं, उसमें कोई कमी नहीं आयी क्योंकि जीव अनादि अनंत हैं। गणित का भी यह नियम है कि अनंत में से अनंत निकालें, फिर भी बाकी अनंत ही रहेंगे। जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव निगोद से निकलते हैं। अतः संसार में जीव जितने हैं, उतने ही रहते हैं। निगोद का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया हैं - गोल असंख्यात हैं, एक गोल में असंख्यात निगोद रहते हैं। जितने जीव व्यवहार राशि से निकल कर मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अव्यवहार राशि से निकल कर व्यवहार राशि में आ जाते हैं। जीव के अनेक नामों के कारणः-जीव बाह्य तथा आभ्यंतर श्वास और निःश्वास लेता है इसीलिये प्राण कहलाता है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में हैं और भविष्य में रहेगा, अतः उसे भूत कहना चाहिये। वह जीवन जीता है, जीवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है, अतः उसे सत्व कहना चाहिये। वह रसों का ज्ञाता है, अतः उसे विज्ञ कहना चाहिये। वह सुख-दुःख का वेदन करता है, अत: उसे वेद कहना चाहिये।' 1.त. सू. 1.1. 2. स. सा. 294. 3. स. सा. 294.5. 4. स. सा. 296. 5. स. सा. 288.9. 6. स्याद्वादमंजरी 29. पृ. 259 पर उद्धृत। 7. भगवती 2.1.8 (2) 134 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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