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पूर्व के संस्कार:-जिस प्रकार कुम्हार अपना हाथ हटा ले तो भी पूर्व प्रयोग के कारण संस्कार क्षय तक चक्र घूमता रहता है, वैसे ही संसारी आत्मा ने अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया है, परन्तु कर्मसहित होने के कारण बिना नियम गमन करता है और कर्ममुक्ति होने के कारण नियमपूर्वक गमन करता है।'
कर्म से असंगः-मिट्टी के लेपसे वजनदार तूंबडी पानी में डूब जाती है परंतु ज्योंही मिट्टी का लेप हटता है, तुंबडी ऊपर आ जाती है, उसी तरह कर्म से भारी आत्मा भटकता रहता है, पर कर्ममुक्त बनते ही ऊर्ध्वगमन कर जाता है।'
बंध छेदः-जिस प्रकार बीज कोश से बंधन टूटने से एरंड ऊपर की ओर जाता है, वैसे ही गति नाम आदि कर्मों के बंधन से हटते ही मुक्तात्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है।'
अग्निशिखावतः-जैसे तिरछी बहने वाली वायु के अभाव में दीपशिखा स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही मुक्तात्मा भी नाना विकारों के कारण कर्म के हटते ही ऊर्ध्वगतिस्वभाव से ऊपर को ही जाती है।
तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने चारों उदाहरणों को सूत्र द्वारा स्पष्ट भी किया है।'
लोकाग्र तक ही सिद्धात्मा जाता है, उससे आगे नहीं जा पाता क्योंकि गमन का कारण धर्म द्रव्य है जिसका अलोक में अभाव है।'
मोक्षावस्था में भी केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवल दर्शन और सिद्धत्व इन चार भावों का क्षय नहीं होता।'
उनमें पुनः संसार में आकर जन्म मरण करने की बाधा भी नहीं है। मूर्त अवस्था में ही प्रीति, परिताप आदि बाधाओं की संभावना थी।'
मुक्ति की प्राप्ति के भेदः-क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अंतर संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्धों में भेद पाया जाता है।' 1. त. सू. वा. 10.7.2.645. 2. त. रा. वा.10.7.3.645. 3. त. रा. वा. 10.7.5.645.
त. रा. वा. 10.7.6.645. 5. त. सू. 10.7.
त. सू. 10.8. त. सू. 10.4. 8. यस्मिन्नेव देशे कर्मविप्रमोक्षस्तस्मिन्नेवावस्थानं प्राप्नोति पुनर्गतिकारणाभावादिति, तन्न: किं कारणम् साध्यस्वात्"
त. वा. 10.4.19.644. 9. त. सू. 10.9.
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