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________________ उत्पादादि द्रव्य के लक्षण घटित होते हैं। इनमें क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है तथापि अन्य प्रकार से उत्पाद है, क्योंकि उत्पाद दो प्रकार का है- स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद। प्रत्येक द्रव्य में आगम के अनुसार अनंत अगुरूलघुगुण स्वीकार किये हैं जिनका षट्स्थानपति हानि और वृद्धि के द्वारा वर्तन होता रहता है, अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से होता है। इसी प्रकार परप्रत्यय का भी उत्पाद आदि होता रहता है। जैसे ये धर्मादि द्रव्य गति आदि के कारण होते हैं, इनके गति स्थिति आदि में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है अतः इनका कारण भिन्न-भिन्न होना चाहिये। इस प्रकार धर्मादि द्रव्य में परप्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद व्यय है और जो उत्पाद व्यय युक्त है वह द्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनमें निष्क्रिय होने के कारण स्वभाव पर्याय ही पायी जाती है, विभाव पर्याय नहीं। स्वभाव पर्याय में परिणमन पर द्रव्यों की अपेक्षा से रहित होता है और जो परिणमन स्कंध रूप से होता है वह विभाव परिणमन कहलाता है। विभाव परिणमन जीव और पुद्गल में पाया जाता है। धर्मास्तिकाय की उपयोगिताः-जीव तथा पुद्गल दोनों ही इस लोकाकाश में इधर से उधर भ्रमण करते हैं। स्थूल गति क्रिया तो इन्द्रियग्राह्य है, परन्तु सूक्ष्म गति क्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती। सूक्ष्म और स्थूल इन दोनों ही गतिक्रिया में धर्म सहायक बनता है। धर्मास्तिकाय को मानने के दो कारण हैं: 1. गति का सहयोगी कारण एवं 2. लोक अलोक की विभाजक शक्ति अगर धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होता तो जीव और पुद्गल की गति अव्यवस्थित होती। जीवादि सभी पदार्थों के अस्तित्व युक्त को लोक कहते हैं। जहाँ जीवादि का संपूर्ण अभाव हो वह अलोक है। अगर जीव पुद्गल को बहिरंग निमित्त धर्मादि न मिले तो अलोक में उनके गमन को रोका नहीं जा सकता। धर्मास्तिकाय के कारण ही गतिव्यवस्था नियंत्रित होती है और 1. स.सि. 5.7.539. 2. नियमसार 28 138 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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