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कुंदकुंदाचार्य ने बंध का कारण जीव के मिथ्यादृष्टि (रागादिरूप होने से) युक्त अध्यवसाय को कहा है। 'मैं जीवों को सुखी दुःखी करता हूँ'-यह दृष्टि की मूढ़ता ही शुभाशुभ कर्म को बांधती है।'
बाह्य वस्तु बंध का कारण नहीं अपितु अध्यवसाय ही बंध का कारण है।'
बंध और आश्रव का भेदः-प्रथम क्षण में कर्म स्कंधों का आगमन आश्रव और आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षण में जीव के प्रदेशों में उन कर्मों का रहना बंध है।'
मोक्ष का स्वरूपः-मोक्ष का अर्थ है मुक्त होना।
पूज्यपाद के अनुसार - "जब आत्मा कर्म मैल रूपी शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है, तब उसके जो अचिंत्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं।
कुंदकुंद के अनुसार “आठों कर्मों को क्षय करने वाले, अनंतज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, अगुरूलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से युक्त परम लोक के अग्रभाग में सिद्ध (मुक्तात्मा) स्थिर हैं।'
व्यवहार नय से ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्धभगवान चैतन्यघन से ठोस चूड़ामणि रल की तरह है, निश्चय नय से सहजपरमचैतन्य चिंतामणिस्वरूप नित्यशुद्ध निज रूप में रहते हैं।'
मोक्ष में जीव का शुद्ध स्वरूप ही रहता हैं। दीपक बुझने पर जैसे प्रकाश के परमाणु अंधकार में बदल जाते हैं, उसी प्रकार समस्त कर्मक्षय होने पर आत्मा शुद्ध चैतन्य अवस्था में बदल जाती है।' कुंदकुंद ने भी पंचास्तिकाय में मोक्ष में आत्मा का सद्भाव सिद्ध किया है। “अगर जीव का मोक्ष में असद्भाव
1. स. सा. 259. 2. स. सा. 265.
वृ. द्र. सं. टी. 108. 4. स. सि. 1.4.18. 5. नि. सा. 12. 6. स. सा. ता. वृ. 101. 7. तरा. वा. 10.4. पृ. 644.
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