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________________ की श्रद्धा नहीं होने देना, दर्शन मोहनीय की एवं असंयमभाव में रहना चारित्रमोहनीय की, भवधारण करना आयु कर्म की, नारक आदि नामकरण नाम कर्म की, उच्च और नीच स्थान की प्राप्ति गोत्र कर्म की, दान आदि में विघ्न करना अंतराय कर्म की प्रकृति है।' स्थिति दो प्रकार की हैं-जघन्य और उत्कृष्टा' ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चारों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोटाकोटि सागरोपम है। यह उत्कृष्ट स्थिति मात्र मिथ्यादृष्टि, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक को ही प्राप्त होती है। नाम और गोत्र की बीस, आयु कर्म की तैंतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।' इन सभी कर्मबंधों की जघन्य स्थिति इस प्रकार है-वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त और अवशिष्ट कर्मों की एक अन्तर्मुहूर्त है।' बकरी, गाय, भैंस, आदि के दूध में जिस प्रकार दो प्रहर तक मधुर रस रहने की कालमर्यादा है, उसी प्रकार कर्मों की स्थिति भी समझना चाहिये। जीव के प्रदेशों में जितने काल तक कर्म संबंध रूप से स्थिति है, उसे स्थिति बंध कहते हैं।' जैसे दध में तारतम्यता से रस संबंधी शक्ति विशेष होती है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों पर लगे कर्म के कंधों में भी सुख अथवा दुःख देने की शक्ति विशेष को अनुभाग बंध कहते हैं। __ आत्मा के एक एक प्रदेश पर सिद्धों के अनंतवें भाग प्रमाण और अभव्य जीवों की संख्या से अनंतगुणे अनंतानंत परमाणु प्रतिक्षण बंधते हैं, उसे प्रदेशबंध कहते हैं।' 1. स. सि. 8.3.736 एवं बृहद् द्र. सं 33, पृ. 106. 2. स.सि. 8.13.760. 3. त. सू. 8.14.15. 4. स.सि. 8.14.760. 5. त.सू. 8.16.17. 6. त. सू. 8.18.20. वृ. द्र. सं. टी. 33. पृ. 107. 8.5. द्र. सं. टी. 33.107. एवं त. सू.8.21. 9. त. सू. 8.24 एवं बृ. द्र. सं. टी. 107. 130 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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