________________
""
संभव नहीं है क्योंकि वेदना कर्म हैं और निर्जरा नो कर्म हैं। "
बंध और मोक्षः - जीव और पुद्गल का परस्पर एकमेक होकर मिल जाना बंध है और सर्वथा वियोग हो जाना मोक्ष है। 2
भगवती के अनुसार "जीव और पुद्गल परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं, मिले हुए हैं, परस्पर चिकनाई से जुड़े हुए हैं और परस्पर गाढ़ हो कर रह रहे हैं। लबालब भरे तालाब में कोई व्यक्ति दो सौ छिद्रों वाली जहाज (नौका) डाल दे, उसमें जैसे पानी भर जाता है, वैसे ही जीव और पुद्गल परस्पर एकमेक हो कर रहते हैं । "
भगवती में बंध के दो प्रकार बताये हैं:-प्रयोगबंध और विस्रसाबंध | " जो जीव के प्रयोग से बंधता है, वह प्रयोगबंध और जो स्वाभाविक रूप से बंधता है, वह विस्राबंध है। यह भगवती सूत्र के 8 वें शतक का नौवाँ उद्देशक बंध की चर्चा से संबंधित है।
जीव और कर्म के बनने योग्य पुद्गल स्कंध का परस्पर अनुप्रवेश - एक का दूसरे में घुस जाना ही बंध हैं। यह पानी और दूध की उपमा से उपमित किया गया है। S
बंध के कारण पाँच हैं - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । '
बंध के प्रकार चार हैं- प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश ।' योग से प्रकृति और प्रदेश का तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग का बंध होता है । "
इसे श्री पूज्यपाद से यों समझाया है - जिस प्रकार नीम की प्रकृति कडुवापन है, गुड़ की प्रकृति मीठापन है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृति है - ज्ञान नहीं होने देना, दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति है - अर्थ का अवलोकन नहीं होने देना, वेदनीय कर्म की प्रकृति है - साता और असाता का संवेदन कराना, तत्त्व 1. भगवती 7.3.11.
2. षड्दर्शन समु. 51
3. भगवती 1.6.26.
4. भगवती 8.9.1.
5. षड्दर्शन समुच्चय टीका 51.230.
6. त. सू. 8.1.
7. त. सू. 8.3
8. बृ. प्र. स. 33.
Jain Education International 2010_03
129
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org