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विविध परिषहों को सहन करते हैं, बाधाएँ सहते हैं, लोच करते हैं, अठारह प्रकार के शील को धारण करते हैं, बाह्य तथा आभ्यंतर राग द्वेष का त्याग करते हैं, उन उग्र तपश्चरण करने वाले शरीरासक्ति रहित मुनियों के कर्मों की निर्जरा सकाम निर्जरा है। वे कर्मों को निमंत्रित कर उन्हें झाड़ते हैं। यह निर्जरा पुरुषार्थ से होती हैं।
जो शांत परिणामी व्यक्ति कर्मों के उदय से होने वाले लाखों प्रकार के तीव्र शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को साता से भोग लेते हैं, वह अकाम निर्जरा है अर्थात् आये हुए कर्मों को शांति से भोगना परंतु उनके साथ झड़ाने की इच्छा से छेड़छाड़ न करना।'
तत्त्वार्थ सूत्र में तप को निर्जरा का कारण बताया है। पूज्यपाद ने निर्जरा दो प्रकार की बतायी हैं-अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से होने वाली निर्जरा को अबुद्धिपूर्वा निर्जरा कहते हैं तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा होती है।'
तत्त्वार्थसूत्र में परिषह 22 माने गये हैं। इन परिषहों को सहन करना कर्मों की निर्जरा हैं। क्षुधा, प्यास, शीत, गर्मी, दंशमशक, नम्रता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शना' ।
तप बारह प्रकार का होता है। अनशन, ऊणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता यह छः प्रकार का बाह्य एवं प्रायश्चित, विनय, वैयावच्च, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग छ: प्रकार का आभ्यंतर तप कहलाता है।'
इन बारह प्रकार के तप से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है।'
अबुद्धिपूर्वा निर्जरा में वेदना तो अत्यधिक होती है, परंतु निर्जरा अल्प होती है। भगवती में इस प्रश्न पर चर्चा उपलब्ध होती है। "भगवन्! नैरयिकों को जो वेदना है, क्या वह निर्जरा कही जा सकती है? नहीं गौतम! यह 1. षड्दर्शन समुच्चय टीका 52.336. 2. स.सि. 9.7.807. 3. त. सू. 9.9. एवं नवतत्व प्र. 27.28. 4. नवतत्व प्रकरण 35.36. 5. "बारसविहं तवो णिज्जराय" नवतत्वप्र. 34.
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