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अतिचार रहित पालन, ज्ञान में सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य, अरिहंतभक्ति, आचार्य भक्ति बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य तीर्थंकर नाम कर्म के आश्रव है। '
परनिंदा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन, और असद्गुणों का उद्भावन ये नीच गोत्र के आश्रव है।' अकलंक ने उच्छादन और उद्भावन का अर्थ किया है - प्रतिबन्धक कारणों से वस्तु का प्रकट नहीं होना उच्छादन है और प्रतिबन्धक के हट जाने पर प्रकाश में आ जाना उद्भावन है । "
इनसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिंदा, सद्गुणों का उद्भावन, असद्गुणों का उच्छादन, नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्च गोत्र के आश्रव हैं। ' अनुत्सेक अर्थात् अहंकार रहित होना है जो गूयते अर्थात् शब्द व्यवहार में आवे, यह गोत्र है। '
ज्ञान
सत्कार्
दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गंध, माल्य, आच्छादन आदि में विघ्न करना आदि-2 अंतराय आश्रव के कारण है।'
संवरनिर्जराः - इन आठों कर्मों के कर्म प्रवेश द्वार रूप आश्रव को रोकना संवर है।
संवर का तात्पर्य हुआ- कर्मद्वार को बंध करना। जो पूर्व में या अतीत में जीव कर्मबंधन कर चुका है उनसे मुक्त होने को निर्जरा कहते हैं। हरिभद्र सूरि ने इसकी परिभाषा दी है- " बंधे हुए कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं । ""
निर्जरा दो प्रकार से होती है - सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा। कर्मों को झड़ा देने की इच्छा से जो साधु दुष्कर तप तपते हैं, श्मसान में रात्रि के वक्त खड़े होकर ध्यान करते हैं, भूख प्यास, सरदी, गरमी आदि
1. त. सू. 6.24.
2. त. सू. 6.25.
3. त. रा. वा. 6.25.530.
4. त. सू. 6.27.
5. त. रा. वा. 6.25.531.
6. त. रा. वा. 6.27.531.
7. षड्दर्शन समुच्चय का. 51.
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