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प्रकाश फैला रहा हो उस समय शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादन है। प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है।'
अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध, परिवेदन ये असाता वेदनीय कर्म के आश्रव हैं।'
प्राणी अनुकंपा, व्रती, अनुकंपा, दान और सरागसंयम आदि का योग, शांति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के आश्रव हैं।'
केवली, श्रुत, संघ, धर्म, और देव इनका अवर्णवाद बोलना (गुणीपुरुषों में दोषों की अविद्यमानता होने पर भी उन में उन दोषों का उद्भावन करना) दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।
कषाय के उदय से होने वाले तीव्र आत्मपरिणाम को चारित्रमोहनीय कर्म का आश्रव कहते है।'
धवला में इसे और भी स्पष्ट किया है। मिथ्यात्व, असंयम, और कषाय पाप की क्रियाएं हैं। इन पापरुप क्रिया की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। जो कर्म इस चारित्र को आच्छादित करता है, उसे चारित्र मोहनीय आश्रव कहते हैं।
अत्यंत आरंभ और परिग्रह का भाव नरकायु का आश्रव, कपट (माया) तिर्यंचायु का, अल्पारंभ और अल्प परिग्रह का भाव एवं स्वभाव की मृदुता मनुष्यायु का और सराग संयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायु के आश्रव हैं।'
योगवक्रता और विसंवाद ये अशुभ नाम कर्म के आश्रव हैं तथा योग की सरलता और अविसंवाद ये शुभ नाम कर्म के आश्रव हैं। शुभ नाम कर्म अत्यंत महत्वपूर्ण है। दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील, सदाचार, व्रतों का
1. स.सि. 6.10628. 2. त.स. 6.11. 3. त. सू. 6.12. 4. त. सू. 6.13. 5. त. सू. 6.14. 6. धवला 22.6.1.9-11 पृ. 40. 7. त.सू. 6.15-17.19. 8. त. सू. 6: 22.23.
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