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हरिभद्र सूरि ने भी कहा है कि “संवरस्तन्निरोधः" आश्रव निरोध करने वाला संवर है।'
गुणरलसूरि ने इसे सर्वसंवर और देशसंवर के नाम से विभक्त किया है। जिस समय मन, वचन और काया का सूक्ष्म और स्थूल दोनों व्यापारों का सर्वथा निषेध हो जाय, उसे संवर कहते हैं। यह अयोगी केवली गुणस्थान में अर्थात् सिद्धात्मा में होता है। मन, वचन, काया की संयत प्रवृत्ति रूप चारित्र से देशसंवर होता है। _आश्रव और संवर जैन दर्शन के महत्वपूर्ण बिंदु है। प्रथम अंग आचारांग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में भी आश्रव संवर की व्याख्या उपलब्ध होती है।
आचारांग में क्रिया करना, करवाना और उसका अनुमोदन करना आश्रव है। और यही आश्रव संसार परिभ्रमण का कारण है और इन सभी कर्म समारंभों को जानकर त्यागना, यही संवर है। इसे साधने वाला ही मुनि होता
कर्म और आश्रवः-ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म हैं। इन आठ कर्मों के आश्रवों को अलग-अलग इस प्रकार से समझा जा सकता है। प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अंतराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आश्रव है!
श्री पूज्यपाद ने निह्नव आदि का अर्थ किया है- तत्त्वज्ञान मोक्षका साधन है, उसका गुणगान करने पर उस समय नहीं बोलने वाले के भीतर जो पैशुन्यरूप परिणाम है वह प्रदोष है। किसी कारण से “ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता" इत्यादि कहकर ज्ञान का अपलाप करना निह्नव है। ज्ञान का अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है, फिर भी जिस कारण (ईर्ष्या) से नहीं दिया जाता वह मात्सर्य है। ज्ञान का विच्छेद करना अंतराय है। दूसरा कोई ज्ञान का 1. षड्दर्शनसमुच्चय 51. 2. षड्दर्शनसमुच्चय टीका. 51.229. 3. आचारांग 1.1.6. 4. आचारांग 1.1.8. 5. वही 1.1.7.12. 6. त. सू. 6.10.
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