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या प्रवेश द्वार को आश्रव कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने पाँच एवं कुंदकुंदाचार्य ने समयसार में आश्रव के चार भेद बताये हैं- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग। कुंदकुंद ने प्रमाद के अतिरिक्त चारों माने हैं।
आश्रव द्रव्याश्रव एवं भावाश्रव रूप से दो प्रकार का है। आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आश्रव होता है, उसे भावाश्रव एवं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के आश्रव को द्रव्याश्रव कहते है।'
__श्रीमद् नेमीचंद ने आश्रव पाँच माने हैं और उनके क्रमशः पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद भी किये है!
ठाणांग सूत्र में इन आश्रवों का अर्थ करते हुए लिखा है- मिथ्यात्व- विपरीत श्रद्धा, अविरति - व्रतरहित जीवन, प्रमाद-आत्मिक अनुत्साह, कषाय-आत्मा का रागद्वेषात्मक उत्ताप, योग-मन वचन और काया का व्यापार।'
हरिभद्र सूरि ने भी कर्म बंध का कारण मिथ्यात्व आदि को आश्रव कहा है।
कर्मों के आगमन के जैसे पाँच द्वार हैं, वैसे ही आते हुए उन कर्मों को रोकने के भी पाँच द्वार है- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग।'
तत्त्वार्थ सूत्र में संवर की परिभाषा दी “जो आश्रव का निरोध करे| रोके वह संवर है।"
यह संवर दो प्रकार का है। द्रव्यसंवर एवं भावसंवर! संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर एवं इसका निरोध होने पर तत्पूर्वक होने वाले कर्म पुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्यसंवर है।' यही परिभाषा नेमिचन्द्र ने दी है। 1. त.सू. 8.1. 2. स.सा. 164. 3. वृ.द्र.स. 29. 4. वृ.द्र.सं. 30. 5. ठाणांग 5.109. 6. षड्दर्शनसमुच्चय का 50. 7. ठाणांग 5.110. 8. त.सू. 9.1. 9. स.सि. 9.1.785. 10. वृ.द्र.स. 34.
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