SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसके विवेचन का वृतांत मिलता है। "जिस प्रकार से सर्वथा सुंदर, सुसज्जित थाली में अठ्ठारह प्रकार का भोजन हो, परंतु वह विष मिश्रित रूप हो तो भोजन करने में आनंद तो आयेगा पर उसका परिणाम अशुभ होगा। उसी प्रकार पापों का सेवन तो अच्छा लगता है पर उसका परिणाम खतरनाक होता है।' पुण्य बंध का उदाहरण इस प्रकार दिया कि एक व्यक्ति सुंदर औषधमिश्रित भोजन करता है, यद्यपि स्वाद उसे रुचिकर नहीं लगेगा, परंतु परिणाम अच्छा होगा।' पुण्य बंध में सुख या रुचि नहीं होती पर उसका परिणाम रुचिकर अवश्य होता है। तत्वार्थ सूत्र में पुण्य को शुभ योग वाला और पाप को अशुभ योग वाला कहा है। ___हिंसा, चोरी, मैथुन आदि अशुभ काययोग असत्य, कठोर, असत्य वचन, अशुभ वचनयोग, मारने का विचार, अहितकारी विचार आदि अशुभ मनोयोग है। इनसे विपरीत शुभ काययोग, शुभ वचनयोग, शुभमनोयोग है।' __ जो आत्मा को पवित्र करे वह पुण्य और जो आत्मा को शुभ से बचावे वह पाप है। पुण्य का उदाहरण साता वेदनीय एवं पाप का उदाहरण असातावेदनीय है।' भगवती में बंध का कारण कांक्षामोहनीय कर्म को माना है। प्रमाद और योग के निमित्त से जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधता है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है, योग वीर्य से एवं वीर्य शरीर से उत्पन्न होता हैं। (जीव नामकर्मयुक्त हो तभी शरीर उत्पन्न करता है।) जब बंध का कारण शरीर है तो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम भी जीव से ही होता है।' आश्रव, संवर, निर्जरा और जीवः-आश्रव का अर्थ है द्वार! कमों के आगमन 1. समयसार 146. 2. स. सा. 147.50. 3. भगवती7.10.15-18. 4. त. सू. 6.3. 5. स.सि. 6.3. 614. 6. वही. 7. भगवती 1.3.8.9. 123 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy