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________________ दोनों का संयुक्त अस्तित्व है।' चौथा मत यह है कि "पुण्य पाप दोनों स्वतंत्र हैं।” पाँचवा मत यह है कि पुण्य पाप कुछ भी नहीं हैं।" इन सभी प्रश्नों को प्रभु ने समाधान से समाहित किया-देहादि का जो कारण है वह कर्म हैं।' कर्म दो प्रकार के हैं- पुण्य और पाप। शुभ कार्यादि से पुण्य का और अशुभ कार्यादि से पाप का अस्तित्व सिद्ध होता है।' पुण्य और पाप स्वतंत्र हैं। सुख का अनुरूप कारण पुण्य एवं दुःख का अनुरुप कारण पाप है। सुख के अत्यंत उत्कर्ष का कारण पुण्य को और दु:ख के अत्यंत उत्कर्ष का कारण पाप को मानना होगा। पाप को पुण्य से सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः पुण्य और पाप दोनों मानने चाहिये। दुःख के लिये जिस प्रकार पाप की कल्पना अनिवार्य है, सुख के लिये उसी प्रकार पुण्य की कल्पना अनिवार्य है। चाहे जहर कम हो या ज्यादा वह हानि पहुँचा ही सकता है, उससे अमृत की कल्पना संभव नहीं। पाप तो दुःख का ही कारण बनता है। ध्यान जैसे एक ही होता है उसी प्रकार कर्मोदय एक ही प्रकार का होता है। इन्हें स्वतंत्र ही मानेंगे।' पुण्य और पाप दोनों पुद्गल हैं, पर न अत्यंत स्थूल हैं न अत्यंत सूक्ष्मा आचार्य कुंदकुंद ने पुण्य और पाप दोनों को जीव का बंधन माना है और एक को सोने की तथा एक को लोहे की बेड़ी कहा है। इतना ही नहीं परंतु उन्होंने तो यह भी कहा कि जीव को इन दोनों का त्याग करना चाहिये। इन दोनों के योग से जीव कर्म बंध करता है और इनसे विरक्त आत्मा कर्ममुक्त बनती है। भगवती में पाप और पुण्य के संबंध में जिज्ञासा और महावीर द्वारा 1. गणधरवाद 1911. 2. गणधरवाद 1919. 3. गणधरवाद 1920 4. गणधरवाद 1921. 5. गणधरवाद 1930 6. गणधरवाद 1933. 7. गणधरवाद 1937. 8. गणधरवाद 1940 122 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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