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वाले उतार चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं। इसे ओघ और संक्षेप भी कहते हैं।'
पुण्य, पाप बंध और जीवः-मुख्य तत्व तो इस संसार में दो ही हैं-जीव और अजीवा' इनका विस्तार करने पर जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ तत्व होते हैं। जीव का विवेचन हम आगे के पृष्ठों में कर आये हैं।
अजीव दो प्रकार का है- मूर्त और अमूर्त। जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श हो उसे रुपी या मूर्त कहते हैं और जिसमें ये चारों न हो वे अमूर्त हैं।' इसका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में करेंगे।
पुण्य पापः-ठाणांग में नौ प्रकार से पुण्य बताया गया है। अन्न देने से, पानी देने से, वस्त्रदान से, लयनदान से, शयनसाधन देने से, मन, वचन, काया की शुभ प्रवृति से एवं नमस्कार से पुण्य होता है
षड्दर्शन समुच्चय में हरिभद्रसूरि ने पुण्य की परिभाषा दी, " सत्कर्मों द्वारा लाये गये कर्म पुद्गलों को पुण्य कहते हैं।" ठाणांग में पाप के स्थान भी नौ बताये हैं- प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, सान, माया, लोभा
प्रभु महावीर के गणधर अचलभ्राता का तो संदेह ही पुण्य, पाप के अस्तित्व और उसके स्वरूप से संबंधित था। उनके मन में पुण्य पाप से संबंधित पाँच प्रश्न थे
"मात्र पुण्य ही है। पाप के अस्तित्व की कोई आवश्यकता नहीं है। पुण्य बढ़ता है, सुख बढ़ता है, पुण्य घटता है, सुख घटता है। फिर पाप के स्वतंत्र अस्तित्व की क्या आवश्यकता है। " या यह भी हो सकता है कि "पाप का ही अस्तित्व माने। पाप घटा, सुख मिला। पाप बढ़ा, दुःख बढ़ा।'' या इन 1. “संखेओ ओद्यो ति य गुणसण्णा.... सकम्मभवा" जीवकाण्ड (गोम्मटसार)3. 2. उत्तराध्ययन 36. 3. नवतत्व 1.
4. उसराध्ययन 36.4. 5. ठाणांग 9.25. 6. षड्दर्शनसमुच्चय 49. 7. ठाणांग 9.26. 8. गणधरबाद 1908.9. 9. गणधरवाद 1910.
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