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________________ जलाने में समर्थ होते हैं।' (10) सूक्ष्मसंपरायः-इस गुणस्थान में अत्यंत सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय रहता है। रंग से रंगे वस्त्र की लालिमा धोने पर जैसे फीकी हो जाती है, वैसे ही इस गुणस्थान में राग अत्यंत अल्प होता है। मात्र सूक्ष्म लोभ होने के कारण यथाख्यात चारित्र उदय में नहीं आता।' (11) उपशांतकषाय गुणस्थान :-निर्मल फल से युक्त जल की तरह अथवा शरदऋतु में होने वाले सरोवर के जल की तरह संपूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को उपशांत कषाय गुणस्थान कहते हैं। (12) क्षीणमोहः-जिस निर्ग्रन्थ का हृदय मोहनीय कर्म के क्षीण होने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे गये जल के समान निर्मल हो जाता हैं, उसे क्षीणमोह कषाय गुणस्थान कहते हैं।' (13) संयोगीकेवली:-केवलज्ञान रुपी प्रकाश से जिसके अज्ञान का अंधेरा समाप्त हो गया है, जिसे परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इन्द्रियों के सहयोग की अपेक्षा न रखने वाले काययुक्त को संयोगीकेवली कहते (14) अयोगीकेवली:-जिसके कर्मों का आश्रव (आगमन) सर्वथा रुक गया है, कर्मरुपी रज की पूर्णतया निर्जरा कर चुके योगरहित को अयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं। यह सिद्धात्मा भी कहलाती है। जीव की परिपूर्णता और उत्कृष्टता इसी गुणस्थान में प्राप्त होती है। इन गुणस्थानों के विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा उत्तरोत्तर विकास करती हुई अंत में संपूर्ण कर्म क्षय करके अपने शुद्धरुप को उपलब्ध करती है। मोह और योग के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने 1. वही 56.57. 2. वही 58.60 3. वही गा. 61 4. वही गा. 62 एवं त. वा. 9.1.22.590. 5. गोम्मटसार जीवकाण्ड 64 6. वही 65. 120 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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