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इसे विरताविरत या संयमासंयम भी कहते हैं।' इस गुणस्थान में त्रसहिंसा से विरत, परंतु उसी समय स्थावर हिंसा से अविरत होता है, इसीलिये उसे विरताविरत कहते हैं। इसमें क्षायोपशमिक भाव होता है। (6) प्रमत्तसंयत गुणस्थानः-प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम होने से पूर्ण
संयम तो हो चुका, परंतु उस संयम के साथ संज्वलन और नोकषाय के उदय से संयम में बाधा उत्पन्न करनेवाला प्रमाद भी होता है, इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। यद्यपि इस गुणस्थान में जीव मूलगुण और शील से युक्त होता है परंतु व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमादों को करने से वह संयम में भी संपूर्ण संयममय नहीं बनता।' अप्रमत्तसंयत गुणस्थानः-जब संज्वलन और कषाय मंद हो जाते हैं, तब सकल संयम से युक्त मुनि के प्रमाद का अभाव हो जाता है। इसलिये इस गुणस्थान को अप्रमतसंयत कहते हैं। इसके भेद एवं उपभेद की
गोम्मटसार में विस्तृत चर्चा है।' (8) अपूर्वकरण गुणस्थानः-प्रथम कभी न उत्पन्न परिणाम की उत्पत्ति इस
गुणस्थान में होती है। इस गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के विशुद्ध. परिणाम विसदृश ही होते हैं, परन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों होते है। इसका काल मात्र अन्तर्मुहूर्त
होता है।' (9) अनिवृत्तिकरण गुणस्थानः-इस गुणस्थान में विशुद्ध परिणामों का भेद
समाप्त हो जाता है। अन्तर्मुहुर्त मात्र अनिवृत्ति के काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीवों में शरीर के आकार, वर्ण आदि की अपेक्षा भेद होता है। जिन विशुद्ध परिणामों द्वारा उनमें भेद नहीं होता, वे अनिवृत्तिकरण परिणाम कहलाते है। इसमें विशुद्ध परिणाम
एक जैसे ही पाये जाते हैं तथा ये परिणाम ध्यान रूपी अग्नि से कर्मकाष्ठ 1. त.वा. 2.5.8. 2. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) 31. 3. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. 32.33 4. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) 45 5. वही गा. 49. 6. वही 51.52. 7. वही 52.
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