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________________ आहार पर्याप्तिः-मृत्यु के बाद शरीर के योग्य कर्मवर्गणा ग्रहण करना आहार कहलाता है। उस आहार को रसरूप परिणमन करने की शक्ति की पूर्णता को आहार पर्याप्ति कहते हैं।' शरीर पर्याप्तिः-जिसके पूर्ण होने पर आहार पर्याप्ति के द्वारा परिणत खलभाग हड्डी आदि कठोर अवयवों में और रस खून बसा, और वीर्य आदि तरल अवयवों में परिणत हो जाता है, उसे शरीर पर्याप्ति कहते हैं। इन्द्रिय पर्याप्तिः-दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों को ग्रहण करने वाली शक्ति की उत्पत्ति के कारणभूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है।' अथवा "खुन, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि और वीर्य इस प्रकार सात धातुओं से स्पर्श और रसन आदि द्रव्येन्द्रियों को बनाने की जो शक्ति है, उसे इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं। श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिः-आहार वर्गणा से ग्रहण किये पुद्गल स्कंधों को उच्छ्वास निःश्वास रूप में परिणत करने वाली शक्ति को श्वासोच्छवास पर्याप्ति कहते हैं। भाषा पर्याप्तिः-जिस शक्ति की पूर्णता से वचन रूप पुद्गल स्कंध वचनों में परिणमित होते हैं, वह भाषा पर्याप्ति कहलाती है। मन पर्याप्तिः-जिस शक्ति के पूर्ण होने से द्रव्यमन योग्य पुद्गल स्कंध द्रव्यमन के रूप में परिणत हो जाते हैं, उसे मनपर्याप्ति कहते हैं।' __- आत्मा और गुणस्थानः-जीव के विकास सोपान चौदह माने गये है।' मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण,सूक्ष्मसंपराय, उपशांत, क्षीणमोह, संयोगी 1. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवतत्वदीपिका 118 2. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवतत्वप्रदीपिका 119. 3. वही 4. पैतीस बोल विवरण पृ.४ 5. वही पृ. 8.9 एवं धवला 1.1.34. 6. वही 7. वही. 8. समवायांग 14.5 117 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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