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तेजोलेश्या वाला विद्वान्, दयालु, कार्य का अनुचित/उचित विचारक, विवेकी आदि होता है।
पद्मलेश्या वाला क्षमाशील, त्यागी, देव गुरु भक्त, निर्मल चित्त एवं सदानंदी स्वभाव वाला होता है।
शुक्ललेश्या वाला राग द्वेष रहित, शोक और निद्रामुक्त, परमात्म-वैभव से युक्त होता है।'
कर्म और जीवनः-कर्म सिद्धांत और उस पर सूक्ष्म चिंतन जैन दर्शन की अभूतपूर्व देन है। कर्म सिद्धांत से संबंधित विपुल साहित्य जैन दर्शन की अनमोल संपत्ति है। भारतीय वाङ्मय में अनेकों वादों का दिग्दर्शन हुआ है, जो कालवाद स्वभाववाद, नियति यदृच्छा, योनि, पुरूष आदि को संसार की उत्पत्ति का कारण एवं सुख-दुख का कारण मानते हैं। जैन दर्शन ने सुख दुःख का कारण जीव के कर्म को माना है।
आत्मा के आन्तरिक विकास या न्यूनता का कारण कर्म हैं। कर्म संयोग से आत्मा की शक्ति आवृत होती है और कर्म वियोग से, प्रकट होती है शक्ति शुद्ध आत्मा पर कर्मप्रभाव नहीं होता। __जैन दर्शन स्याद्वाद को स्वीकार करता है। जैन दर्शन किसी भी कार्य के लिये पाँच तत्वों को अनिवार्य मानता है- काल, स्वभाव, नियति, पुरूषार्थ और कर्म ये पाँचों मिलकर कार्य का रूप धारण करते हैं। इन पाँचों में कर्म मुख्य हैं, पर इन चारों का भी अस्तित्व है।
जैन दर्शन कर्म को पुद्गल मानता हैं। इन कर्म पुद्गलों के कारण ही परतंत्रता और दुःख है। आत्मा अरूपी होते हुए भी कर्म के कारण रूपी और मूर्त है।
जीव मिथ्यादर्शनादि परिणामों के द्वारा जिन्हें उपार्जित करता है, कर्म कहलाते हैं। 1. पैंतीस बोल विवरण 40.41 2. "काल स्वभावो नियति- सुखदुःख हेतो" श्वेताश्वर उप.12 3.त. सू. 8.2 4. भगवती अभय. वृत्ति पत्र 623 5. परीक्षामुख 114.296.
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