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________________ कर्म दो प्रकार के हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । द्रव्यकर्म आठ प्रकार का हैं। यह मूल-प्रकृति के भेद से है, उत्तर प्रकृति के भेद से एक सौ अट्ठावन प्रकार का है। तथा उत्तरोत्तर भेद से तो अनेक प्रकार का है। भावकर्म चैतन्य परिणामरूप हैं क्योंकि क्रोधादिकर्मों के उदय से होने वाले क्रोधादि आत्मपरिणाम यद्यपि औदयिक हैं तथापि वे कथंचित् अभिन्न है, लेकिन ज्ञानरूपता नहीं हैं क्योंकि ज्ञान औदयिक नहीं है। अत. क्रोधादि आत्मपरिणाम आत्मा से अभिन्न होने के कारण कथंचित् चैतन्य परिणामात्मक है। ' मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं- चारित्र मोहनीय और दर्शन मोहनीय | कषाय और नो कषाय के भेद से चारित्र मोहनीय दो प्रकार का एवं दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है। ' चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है- ( 1 ) अकषायवेदनीय और (2) कषायवेदनीय । ( 1 ) किंचित अर्थात अत्यल्प मात्रा में कषाय के उदय को अकषाय चारित्र मोहनीय कहते हैं एवं इसके हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरूष वेद और नपुंसक वेद, इस प्रकार नौ भेद हैं तथा (2) अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, और संज्वलन - इनके चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सोलह भेद कषायमोहनीय चारित्र के होते हैं। " चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का चारित्र गुण प्रकट नहीं होता। 3 दर्शन मोहनीय के तीन भेद - ( 1 ) सम्यक्त्व (2) मिथ्यात्व और (3) सम्यकुमिथ्यात्व | सम्यक्त्व:- जब मिथ्यात्व, शुभ परिणामों के कारण अपने विपाक को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। मिथ्यात्व:-जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थ के श्रद्धान करने में निरुत्सुक एवं हिताहित का विचार करने में असमर्थ हो, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। 1. परीक्षामुख का. 115 एवं टीका 296.2971 2. उत्तराध्ययन 33.8.10 3. त. सू. 8.9 व उत्तराध्ययन 33.11 Jain Education International 2010_03 113 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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