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________________ भवनवासी देव दस प्रकार के है, व्यंतर आठ प्रकार के, ज्योतिषी पाँच प्रकार के है। वैमानिक देव दो प्रकार के है- कल्पोपन्न और कल्पातीता' कल्पोपन्न देव बारह प्रकार के एवं कल्पातीत देव अवेयकवासी और अनुत्तरवासी भेद से दो प्रकार के हैं। ग्रेवेयक नौ प्रकार के एवं अनुत्तरवासी पाँच प्रकार के भुवनपति देव मनुष्य लोक से नीचे रहते हैं। इनके निवास का विस्तृत विवेचन प्रज्ञापना सूत्र 177-186 में पढे। व्यंतर और ज्योतिष्क क्रमश: विषम और तिरछे रूप से रहते हैं। वैमानिक क्रमशः ऊपर-ऊपर रहते हैं।' वैमानिक ऐशान अर्थात् द्वितीय विमानवासी देवों तक के देव शरीर संपर्क द्वारा विषय भोग भोगते हैं। उसके बाद क्रमश: अवशिष्ट देव स्पर्श द्वारा, रूप द्वारा, शब्द द्वारा और मन से विषय भोग लेते हैं। यह स्थिति भी कल्पोपपन्न देवों तक रहती हैं। कल्पातीत देव तो विषयभोगों से पूर्णत: विरत रहते हैं।' क्रमशः स्थिति, प्रभाव, सुख, चमक, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविशुद्धि, अवधिविषय आदि की अपेक्षा ऊपर ऊपर के देव अधिक है। देव एवं नैरयिक जीव नियम से औपपातिक जन्म वाले होते हैं।' जीव और शरीरः-जब तक राग-द्वेष की स्थिति रहती है, तभी तक आत्मा शरीर के बंधन में निवास करती है। शरीर पाँच प्रकार के होते हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। 1.त.सू. 4.10. 2. त.सू. 4.11,12.11 त.सू. 4.16,17 एवं प्रज्ञापना 1.143. 3. प्रज्ञापना 1.144-147. 4. स.सि. 418-477. 5. त.सू. 4.18. 6. त.सू. 4.7. 7. त.सू. 4.8.9 8. त.सू. 4.20 एवं स.सि. 4.20.481 9. ठाणांग 2.34. 10. ठाणांग 2.163. 11. प्रज्ञापना 12.901 एवं त.सू. 2.36. . 108 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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