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होते हैं। ये गति की अपेक्षा नारकी, इन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय, कषाय की अपेक्षा चारों कषाय युक्त, लेश्या की अपेक्षा इनमें कृष्ण, नील और कपोत लेश्या है। योग की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी है। उपयोग की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन दोनों से युक्त है। ज्ञान की अपेक्षा मति, श्रुत, अवधि और मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान विभंगज्ञान हैं। दर्शन की अपेक्षा सम्यक् दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि है। चरित्र की अपेक्षा न तो चारित्री हैं, नं चारित्राचारित्री हैं, बल्कि अचारित्री है। वेद की अपेक्षा नपुंसक वेदी है।'
इन सातों नरकों की भूमि क्रमशः नीचे-नीचे और घनाम्बु तथा वायु और आकाश के सहारे स्थित है। इन नारक भूमियों में क्रमशः तीस लाख, पचीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नरक है। इन नैरयिकों में लेश्या, परिणाम, शरीर प्रमाण, वेदना और विक्रिया क्रमशः अशुभ, अशुभतर और अशुभतम होते जाते हैं तथा वेदना, शरीर प्रमाण आदि वृद्धिगत होते हैं।'
ये नारक परस्पर उत्पन्न किये गये दुःख वाले होते हैं। और तीन नरकभूमियों तक संक्लिष्ट आसुरों के द्वारा उत्पन्न किये गये दुःख वाले भी होते हैं।
भयंकर पीड़ा भोगने पर भी इनका अकाल मरण नहीं होता।'
इनकी उत्कृष्ट आयु क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बावीस, और तेतीस सागरोपम है।
देवों के प्रकारः-देवों के चार निकाय होते है। भवन पति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक।
इनमें कृष्ण, नील, कापोत और पीत लेश्या पायी जाती हैं।"
1. त.सू. 2.50. 2. प्रज्ञापना 13.938. 3. त.सू. 3.1 4. त.सू. 3.2 (दिगम्बर परम्परानुसार) 5. त.सू. 3.3 6. त.सू. 3.4-5 7. स.सि. 3.5.375. 8. त.सू. 3.6 9. ठाणांग 4.124 एवं त.सू. 4.1. 10. त.सू. 42
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