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________________ कर अवयवों की रचना होना। नारी के उदर में शुक्र और शोणित के परस्पर ग्रहण को गर्भ कहते है। सम्मूच्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के चौदह स्थान होते हैं। पन्द्रह कर्मभूमि, पन्द्रह अकर्मभूमि और छप्पन अन्तर्वीप में गर्भज मनुष्यों के विष्ठा में, मूत्र में, नाक के मेल में, वमन में, पित्त में, मवाद में, रक्त में, वीर्य में, पूर्व में सूखे शुक्र के बाद में भीगे पुद्गलों में, मरे हुए जीवों के कलेवर में, स्त्री पुरूष के संयोग में, ग्राम के गटर में, शहर के गटर अथवा संपूर्ण अपवित्र स्थानों में ये पैदा होते हैं।' गर्भज मनुष्य कर्मभूमि, अकर्मभूमि एवं अन्तर्वीप में पैदा होते हैं।' अन्तर्वीपक 58 प्रकार के, कर्मभूमिक 15 प्रकार के, एवं अकर्मभूमिक 30 प्रकार के होते हैं। गर्भज तीन प्रकार के होते हैं। जरायुज, अण्डज, और पोतजा' जो जाल के समान प्राणियों का आवरण है और जो मांस व शोणित से बना हैं उसे जरायु कहते हैं। जो नख की त्वचा के समान कठिन हैं, गोल हैं और जिसका आवरण शुक्र और शोणित से बना हैं, उसे अण्ड कहते हैं। जिसके सब अवयव बिना आवरण के पूरे हुए हैं और जो योनि से निकलते ही हलन चलन आदि सामर्थ्य से युक्त हैं उसे पोत कहते हैं। जरायु से पैदा होने वाले जरायुज, अण्डों से पैदा होने वाले अण्डज, पोत से पैदा होने वाले पोतज कहलाते हैं।' मनुष्य, गाय, बैल, बकरी आदि जरायुज; सर्प, गोह गिरगिट कबूतर आदि अण्डज; हाथी, खरगोश, भारण्डपक्षी, आदि पोतज कहलाते हैं।' नैरयिकों के प्रकार:-नरक सात प्रकार के हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमः प्रभा। सातों नरकों के जीव नपुसंक 1. स.सि. 2.31, 322. 2. प्रज्ञापना 1.39 3. प्रज्ञापना 1.94 4. प्रज्ञापना 1.95-97 5. त.सू. 2.34 6. स.सि. 2.34.326. 7. सभाष्यतत्वार्थाधिगम 2.34.108 8. प्रज्ञापना 1.60 त. सू. 3.1. 106 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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