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________________ नियमसार में भी आत्मा को निःशल्य, निम्रन्थ, वीतराग, सर्वदोष विमुक्त, निष्काम, निक्रोध, निर्मान, निर्मद बताया है।' कुंदकुंद ने आत्मा का भावात्मक स्वरूप बताते हुए कहा कि केवलज्ञान स्वभाव, केवलदर्शन स्वभाव, अनंतसुखमय, अनंतवीर्यमय आत्मा हैं। यही लक्षण उत्तराध्ययन में मिलता है।' ____ कर्मयुक्त आत्माः-जब तक आत्मा ज्ञानावरणीय आदि कर्म से बंधा हुआ है, तब तक वह संसारी आत्मा कहलाती है। ज्योंही ये कर्म समाप्त होते हैं या जीव से कर्मों का संबंध विच्छिन्न होता है, उसका शुद्ध और उज्ज्वल रूप प्रकट हो जाता है। इसे परमात्मा या सिद्धात्मा भी कहते हैं। ___ अब हम अशुद्धात्मा का विवेचन करेंगे। जीव में ज्ञान और दर्शन गुण की धारा निरंतर बहती रहती है। जैसा-जैसा बाह्य या अंतरंग निमित्त मिलता है, उसके अनुसार वह कार्य करती रहती है। इतना अवश्य है कि वह धारा न्यूनाधिक होती रहती है। संसारी अवस्था में वह मलीन, मलीनतर या मलीनतम होती है और केवली अवस्था में परिपूर्ण विशुद्ध हो जाती है क्योंकि केवली में बाह्य व अन्तरंग कारण अपेक्षित नहीं रहते।' ___ कुंदकुंदाचार्य ने आत्मा का स्वरूप पंचास्तिकाय में बताते हुए कहा है कि-आत्मा चैतन्य, उपयोग स्वरूप, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, अमूर्त, व कर्मसंयुक्त है। षड्दर्शन समुच्चय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने जीव का स्वरूप बताते हुए कहा है कि - जीव चैतन्यस्वरूप, ज्ञान दर्शन आदि गुणों से भिन्न-भिन्न, मनुष्यादि विभिन्न पर्यायों को धारण करने वाला, शुभ अशुभ कर्म का कर्ता और फल का भोक्ता है।' जीव अनादिनिधन है और चेतना उसका सहज स्वभाव है।' 1. नि.सा. 44. 2. नि.सा. 96 3. उत्तराध्ययन 28.11 4. पं.का. 20 5. स.सि. 2.8.273 6. पं.का. 27 7. षड्दर्शन समुच्चय 48-49. 8. अभिधान राजेन्द्र कोष भा. 4 पृ. 1519. 93 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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