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से कथन है।'
निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा पर पदार्थों का कर्ता नहीं है। जो यह मानता है, कि मैं दूसरों को मारता हूँ-दूसरे मुझे मारते हैं, वह अज्ञानी है। जो यह मानता है कि मैं दूसरों को सुखी करता हूँ, दूसरे मुझे सुखी करते हैं वह मूर्ख है। इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है क्योंकि कर्मोदय से ही जीव सुखी-दुःखी होते हैं।'
. जीवों का वर्गीकरण और शुद्धात्मा का स्वरूपः-जीवों का मुख्य विभाजन संसारी जीव और मुक्त जीव के रूप में किया गया है।'
मुक्तात्मा का स्वरूपः-आत्मा ज्ञानमय, दर्शनमय, अतीन्द्रिय, महा पदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालंब और शुद्ध है। आत्मा ध्रुव, निश्चित शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। यह काल की अपेक्षा से आत्मा के लक्षण है, भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श हैं।' ___आचारांग में कर्ममुक्त आत्मा का स्वरूप इस प्रकार प्राप्त होता है। शुद्धात्मा अवर्णनीय, अगम्य, शरीर रहित, ज्ञाता, न दीर्घ, न ह्रस्व, न वृत्त, न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न परिमंडल, न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीत, न शुक्ल, न सुगंधित, न दुर्गंधयुक्त, न तिक्त, न कटु, न कषाय, न अम्ल, न मधुर, न कर्कश, न मृदु, न गुरू, न लघु, न शीत, न उष्ण, न स्निग्ध, न रुक्ष है। वह शरीरमुक्त, कर्ममुक्त, अलेप, स्त्री-पुरुष- नपुंसक आदि वेद रहित है। वह मात्र परिज्ञा है, संज्ञा है, चैतन्यमय है, अनुपमेय व अमूर्त है वह पदातीत, शब्दातीत, रूपातीत, रसातीत, स्पर्शातीत है।'
आचार्य कुंदकुंद ने आत्मा को निश्चय नय की दृष्टि से ज्ञायक ही कहा है। वह न प्रमत्त है, न अप्रमत्त, न ज्ञान दर्शन चारित्र स्वरूप है।' वह तो मात्र अनन्य, शुद्ध, उपयोग स्वरूप है। 1. समयसार 106. 2. समयसार 247-258. 3. त.सू. 2.10, ठाणांग 2.409 4. प्र.सा. 192 5. ठाणांग 5.173
6. आचारांग 3.123-40 व समयसार 50-55 7. समयसार
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