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भगवती में जीव और प्राण को भिन्न बताया है। गौतम ने जीव और चैतन्य की जब भिन्नता पछी, तब प्रभु ने जीव और चैतन्य को एकार्थक बताया। परंतु जब प्राण और जीव की भिन्नता पूछी तो कहा - जो प्राण धारण करता है, वह तो जीव है, परंतु जो जीव है उसके लिये प्राण धारण करना अनिवार्य नहीं है। शुद्धात्मा के प्राण नहीं होते।'
सांख्य दर्शन आत्मा को उपचार से कर्मों का सुखादि जो फल है, उसका वास्तविक भोक्ता मानता है।
यद्यपि आत्मा शुद्धनय से निर्विकार है! परम आह्लाद जिसका लक्षण है ऐसे सुखामृत का भोक्ता है तो भी अशुद्धनय से सांसारिक सुख दुःख का भी भोक्ता होता है। जीव को वास्तविक भोक्ता न कहकर अगर उपचार से कहा जाय तो सुख दुःख का संवेदन निराधार हो जायेगा।'
आत्मा और भावः-तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने आत्मा के भावों को पाँच विशिष्ट नाम दिये हैं-औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिका इन पाँचों की संक्षिप्त व्याख्या पूज्यपाद ने इस प्रकार बतायी है।
औपशमिकः-जैसे कतक आदि द्रव्य के संबंध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारण वश प्रकट न होना या कुछ समय के लिये रोक देना उपशम है। जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण 'उपशम' है, वह औपशमिक भाव है।' इसे स्पष्ट करते हुए क्षु. जिनेन्द्र वर्णी ने लिखा है- कर्मों के दबने को उपशम और उससे उत्पन्न जीव के शुद्ध परिणामों को औपशर्मिक भाव कहते हैं।
उमास्वाति ने औपशमिक भाव के दो भेद किये हैं- सम्यक्त्व और चारित्रा'
कषायवेदनीय के अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ, और दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग् मिथ्यात्व ये तीन भेद, इन सात के उपशम 1. भगवती 6.10.2. 2. भगवती 6.10.6 3. षड्दर्शनसमुच्चय टीका 49.96. 4. वृ.द्र.स. 9. 5. स्याद्वाद; 15.139. 6. त.सू. 2.1 7. स.सि. 2.1.252. 8. त.सू. 2.3
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