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स्थान के प्रदेशों को स्पर्श करने के लिये मूल शरीर को न छोड़ आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को मारणांतिक समुद्घात कहते हैं। तैजस् समुद्घात दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ। जीवों को किसी व्याधि या दुर्भिक्ष से पीड़ित देखकर मूल शरीर को न छोड़ मुनियों के शरीर से बारह योजन लम्बे सूच्यगुंल के असंख्येय भाग, अग्रभाग में नौ योजन, शुभ आकृति वाले पुतले के बाहर निकल जाने को शुभ तैजस् समुद्घात कहते हैं। यह पुतला व्याधि, दुर्भिक्ष आदि को नष्ट करके वापस लौट आता है। किसी प्रकार के अपने अनिष्ट को देखकर मुनियों के शरीर को बिना छोड़े ही मुनियों से उक्त परिमाण वाले अशुभ पुतले के बाहर निकल कर जाने को अशुभ तैजस्समुद्घात कहते हैं। यह अशुभ पुतला अपने अनिष्ट को नष्ट करके मुनि के साथ
स्वयं भी भस्म हो जाता है। (5) मूल शरीर को न छोड़कर किसी प्रकार की विक्रिया करने के लिये
आत्मा के प्रदेशों के बाहर जाने को वैक्रिय समुद्घात कहते हैं। (6) ऋद्धिधारी मुनियों को किसी प्रकार की तत्वसंबंधी शंका होने पर उनके
मूल शरीर को बिना छोड़े शुद्ध स्फटिक के एक हाथ के बराबर पुतला का आकार मस्तक के बीच से निकलकर शंका की निवृत्ति के लिये केवली भगवान के पास भेजा जाना आहारक समुद्घात कहलाता है। यह पुतला केवली भगवान के पास अन्तर्मुहूर्त काल में पहुँच जाता है
और शंका की निवृत्ति होने पर अपने स्थान पर आ जाता है। (7) वेदनीय कर्म के अधिक रहने पर और आयु कर्म के कम रहने पर
आयु कर्म को बिना भोगे ही आयु और वेदनीय कर्म बराबर करने के लिये. आत्मप्रदेशों का समस्त लोक में व्याप्त हो जाना केवलीसमुद्घात है। इस अपेक्षा से आत्मा व्यापक है।
जिस प्रकार रूपादि घट में ही उपलब्ध होते हैं, उसी प्रकार आत्मा शरीर में ही उपलब्ध होती है। तथा शरीर के संपूर्ण प्रदेशों में व्याप्त रहती है।
आत्मा को सर्वगत मानने से वह सर्वज्ञ हो जायेगी, फिर अपने सुख 1. अन्ययो. व्य. १
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